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[० रतनचन्द जैन मुस्तार ।
सकते हैं । इसी कारण से भोगभूमिया के मनुष्य भी संयम धारण नहीं कर सकते हैं। मात्र वज्रवृषभनाराचसंहननवाले कर्मभूमिया के मनुष्य ही द्रव्य आदि की शुद्धि मिलने पर कर्मों की क्षपणा कर सकते हैं ।
भावशुद्धि अर्थात् क्षपकश्रेणी के योग्य रत्नत्रयरूप शुद्धोपयोग के बिना भी कर्मों की क्षपणा नहीं हो सकती है।
-जं. ग. 2-12-71/VIII/ रोशनलाल गेन साढ़े तीन हाथ से कम ऊँचाई वाले मुनि नहीं हो सकते शंका-प्रमत्तगुणस्थान में कम से कम साढ़े तीन हाथ की अवगाहना कही है। आजकल चार हाथ का शरीर होता है । आठवर्ष की आयु में दीक्षा लेनेवाले का दो हाथ का शरीर होगा। साढ़े तीनहाथ का नियम कैसे हो सकता है ?
समाधान-श्री धवलशास्त्र पुस्तक ४ पृ० ४५ पर संयतों के क्षेत्र का कथन करते हुए कहा है-"प्रमत्तसंयतगुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक जीवों की जघन्य-अवगाहना साढे तीन अरनि ( हाथ ) प्रमाण
और उत्कृष्ट-अवगाहना पाँचसो पच्चीसधनुष है । ये दोनों ही अवगाहनाएं भरत और ऐरावतक्षेत्र में ही होती हैं, विदेह में नहीं, क्योंकि विदेह में पाँचसौ धनुष के उत्सेध का नियम है।" इस आगम के अनुसार जिन जीवों की
आठवर्ष की अवस्था में या उसके पश्चात् भी. साढे तीनहाथ से कम है वे मुनि नहीं हो सकते। पंचमकाल के अन्त में भी भरतक्षेत्र में भावलिंगी मुनि होंगे। उससमय मनुष्यों की अवगाहना साढ़े तीनहाथ होगी (जम्बूदीवपण्णत्ती, सर्ग २ श्लोक १८७ )।
-जै. ग. 5-12-63/IX/ पन्नालाल युवावस्था में भी परिवार को स्वीकृति के बिना दीक्षित होने में दोष नहीं
शंका-नं. १-कोई मनुष्य घर-बार छोड़कर मुनिदीक्षा ले तब क्या उसकी जिम्मेदारी स्त्री आदि परिवार के पोषण की रहती है या नहीं? वह स्वयं निःशल्य हो जाय, किन्तु उसकी स्त्री-पुत्रादि को शल्य बन जाय तथा उनका जीवन-यापन कठिन हो जाय ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति दोषी है या नहीं? है तो कहाँ तक व किस अपेक्षा से ? इसके अतिरिक्त यदि कोई मनुष्य विवाह के शीघ्र ही पश्चात उदासीन होकर भरपूर यौवनावस्था में स्त्री की Consent (स्वीकारता, मरजी) के बिना घर छोड़कर मुनि हो जावे और कारणवशात् । अपनी इच्छाओं का दमन न कर सकने के कारण Corrupt ( व्यभिचारी) हो जाय तो वह व है, या है भी या नहीं ? समाज में Corruption ( व्यभिचार ) उत्पन्न करने का भी वह दोषी है या नहीं ?
समाधान--यह जीव ( मैं ) अनादिकाल से कर्मबंधन के कारण परतंत्र हो रहा है, क्योंकि जो जीव को परतंत्र करें वह कर्म है। कहा भी है
"जीवं परतंत्रीकुर्वन्ति, स परतन्त्रीक्रियते वा यस्तानि कर्माणि । तानि च पुद्गलपरिणामात्मकानि जीव. स्य पारतन्त्र्यनिमित्तत्वात, निगडादिवत् । क्रोधादिभिर्व्यभिचार इति चेत्, न, तेषां जीवपरिणामानां पारतन्व्य स्वरूपत्वात । पारतन्ध्यं हि जीवस्य क्रोधादिपरिणामो न पुनः पारतन्त्यनिमित्तम।"
अर्थ-जो जीव को परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है, उन्हें कर्म कहते हैं। वे सब पुद्गलपरिणामात्मक हैं, क्योंकि जीव की परतंत्रता के कारण हैं। जैसे निगड ( बेड़ी) मादि । प्रश्न
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