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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
शंका- प्रवचनसार के चारित्राधिकार में ४९ वें श्लोक में सत् शूद्र भी मुनि हो सकता है सो यह ठीक है शूद्र के कहाँ तक के भाव हो सकते हैं ? हमारे देखने में तो यह आया है कि अस्पृश्य शूद्र दर्शन प्रतिमा तक और स्पृश्य शूद्र क्षुल्लक तक हो सकता है। यह कहाँ तक हो सकते हैं ? समझावें ।
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समाधान - प्रवचनसार चारित्राधिकार गाथा ४९ में चादुब्वण्णस्स शब्द है, छाया में 'चातुर्वर्णस्य' शब्द है जिसका अर्थ 'चार वर्णवाले' नहीं है, किन्तु चार प्रकार के है । यहाँ पर 'चातुर्वर्णस्य' शब्द से ऋषि, मुनि, यति व अनगार ग्रहण करना चाहिए अथवा श्रावक-श्राविका -मुनि व आर्यिका ग्रहण करना चाहिये । ( देखें- टीका श्री जयसेनाचार्यकृत ) प्रवचनसार गाथा ४९ में शूद्र का कथन ही नहीं है। अस्पृश्यशूद्र हिंसादि पाँच पापों का एक देश त्याग कर अहिंसा आदि पाँच अणुव्रतों को धारण कर सकता है और स्पृश्यशूद्र क्षुल्लक तक हो सकता है । नीचगोत्र का उदय पाँचवें गुणस्थान तक है, आगे के गुणस्थानों में नीचगोत्र का उदय नहीं है ।
— जै. सं. 24-556/VI / क. दे. गया
शूद्र में मुनिदीक्षा की पात्रता नहीं
शंका--ता० २०-१०-५५ न० ३ के शंका समाधान में शूद्रमुक्ति के प्रश्न से किनारा करते हुए जो यह समाधान किया है कि "जब इस क्षेत्र और इस काल में किसी की मुक्ति सम्भव नहीं तो शुद्रमुक्ति का सवाल बेकार है" इससे शंकाकार का समाधान हुआ या नहीं, यह तो मैं नहीं कह सकता, पर मैं यह पूछना चाहता हूँ किअसत् और सत् दोनों प्रकार के 'शूद्र मुनिदीक्षा के योग्य हैं या नहीं ? सप्रमाण समाधान करें ।
समाधान- - मुनिदीक्षा होने पर नियम से प्रमत्त व अप्रमत्तगुणस्थान होते हैं । प्रमत्त और अप्रमत्त अर्थात् छठे, सातवेंगुणस्थान में नीचगोत्र का उदय नहीं है । नीचगोत्र की उदयव्युच्छित्ति पाँचवें गुरणस्थान में हो जाती है । दोनों प्रकार के शूद्र अर्थात् नीचगोत्रियों के छट्टा-सातवाँ आदि गुणस्थानों का होना असम्भव है ।
( गोम्मटसार ( क० ) गा० ३०० )
शंका- क्या शूद्र मरते समय मुनि बन सकता है ?
समाधान - शूद्र मरते समय भी मुनि नहीं बन सकता है । आषं प्रमाण इस प्रकार 1
कुल- जाति वयो- देह कृत्य बुद्धि-धादयः ।
नरस्य कुत्सिता व्यङ्गास्तदन्ये लिङ्गयोग्यता ||८|५२ ||
यो व्यावहारिको व्यङ्गो मतो रत्नत्रय प्रहे ।
न सोऽपि जायतेऽव्यङ्गाः साधुः सल्लेखना - कृतौ ॥ ५४ ॥
शूद्र मरणकाल में भी मुनि नहीं बन सकता
कुकुल, कुजाति, कुवय, कुदेह, कुकृत्य, कुबुद्धि और कुक्रोधादिक ये मनुष्य के जिनलिंग ग्रहण में बाधक हैं इनसे भिन्न सुकुलादिक जिनलिंग ग्रहण की योग्यता को लिये हुए हैं ।
जो जिनलिंग ग्रहण में व्यवहारिक बाधक माने गये हैं वे सल्लेखना के सयय भी बाधक हो रहते हैं अबाधक नहीं हो जाते हैं ।
योगसारप्राभृत के इन दोनों श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है कि शूद्र मरणसमय भी मुनि नहीं बन
- जै. ग. 14-1-71 / VII / शास्त्र सभा, नजफगढ़
सकता है ।
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