________________
७३०
।
. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
वर्तमान पंचमकाल में उत्कृष्ट सामग्री के अभाव में उत्कृष्ट धर्म ध्यान नहीं हो सकता है तथापि मध्यम धर्मध्यान तो हो सकता है।
अवेदानी निषेधंति शुक्लध्यानं जिनोत्तमा ।
धर्म्यध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणीभ्यां प्राग्विवतिनां ॥३॥ [तत्त्वानु.] इस कलिकाल में जिनेन्द्र भगवान ने शुक्लध्यान का निषेध किया है, किन्तु उपशम तथा क्षपकश्रेणी से पूर्व होनेवाला ऐसा धर्मध्यान तो पंचमकाल में हो सकता है।
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स ।
तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी ॥७६॥ [मोक्षपाहुड] भरतक्षेत्र में दुःषमनामक पंचमकाल में मुनि के धर्मध्यान होता है तथा वह धर्मध्यान आत्मस्वभाव में स्थित साधु (मुनि) के होता है । ऐसा जो नहीं मानता है वह अज्ञानी है। यहां पर यह बतलाया है कि प्रात्म-स्वभाव में स्थित मुनि के ही धर्मध्यान होता है।
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।
तस्माद्यदनपेतं हि धम्यं तद्ध्यानमभ्यधुः ॥५१॥ [तत्त्वानुशासन] धर्म के ईश्वर गणधरादिदेव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र को धर्म कहते हैं। इसलिये जो उस रत्नत्रयरूप धर्म से उत्पन्न हो उसे ही वे आचार्यगरण धर्मध्यान कहते हैं।
"चत्तासेसवज्झंतरंगगंथो।" श्री वीरसेनाचार्य ने ध्याता का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि समस्त बहिरंग और अंतरंग परिग्रह के त्यागी के ही धर्मध्यान होता है। इसी बात को श्री नागसेन आचार्य ने कहा है
तत्रासन्नीभवेन्मुक्तिः किंचिदासाद्य कारणं । विरक्तः कामभोगेभ्यस्त्यक्तसर्वपरिग्रहः ॥४१॥ अभ्येत्य सम्यगाचार्य दीक्षां जनेश्वरी श्रितः। तपः संयमसम्पन्नः प्रमादरहिताशयः ॥४२॥ सम्यग्निर्णीत जीवादिध्येय वस्तुव्यवस्थितः । आर्तरौद्रपरित्यागाल्लब्धचित्तप्रसत्तिकः ॥४३॥ मुक्तलोकद्वयापेक्षः षोढाशेषपरीषहः । अनुष्ठितक्रियायोगो ध्यानयोगे कृतोद्यमः ॥४४॥ महासत्त्वः परित्यक्त दुर्लेश्याशुभभावनः । इती दृग्लक्षणो ध्याता धर्मध्यानस्य सम्मतः ॥४५॥
ध्याता का स्वरूप इस प्रकार है-मुक्ति जिसके समीप पा चुकी है अर्थात जो निकट भव्य है. कारण पाकर जो कामभोगों से विरक्त हो गया है, जिसने समस्त परिग्रह का त्याग कर दिया है, उत्तम आचार्य के समीप जिसने जिनदीक्षा धारण कर ली है, जो तप और संयम को अच्छी तरह पालन करता है, जो प्रमाद से रहित है. जिसने ध्यान करने योग्य जीवादिक पदार्थों की अवस्था का भले प्रकार निर्णय कर लिया है, आतं-रोद्रध्यान के त्याग के कारण जिसका चित्त सदा निर्मल रहता है, जिसने इस लोक और परलोक दोनों लोकों की अपेक्षा का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org