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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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मोहनीय कर्म का विनाश करना धर्मध्यान का फल है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय - गुणस्थान के अन्तिम समय में मोहनीयकर्म का विनाश देखा जाता है ।
मोहनीय कर्म का क्षय होने से ही ज्ञानावरण- दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का युगपत् क्षय होता है । यदि मोहनीय कर्म का क्षय न हो तो ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों का भी क्षय नहीं हो सकता और इन तीनों कर्मों के क्षय के प्रभाव में केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती । कहा भी है
"मोहयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ||१|| " [ मोक्षशास्त्र अध्याय १० ]
- जै. ग. 31-7-75/X/ राजमल छाबड़ा
गुणस्थानों में धर्मध्यान
शंका- भ ेणी में धर्मध्यान कौनसे गुणस्थान तक रहता है और क्यों ?
समाधान - इस विषय में जैन आचार्यों के दो मत हैं। श्रीमदाचार्य पूज्यवाद का तो यह मत है कि श्रेणी के पहले धर्मध्वान होता है और श्रेणी में शुक्लध्यान होता है ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय ९, सूत्र ३६ व ३७ की टीका ) श्री अकलंकवेव राजवार्तिककार का भी यही मत है । श्री षट्खंडागम पुस्तक १३ को 'धवल' टीका में पृ० ७४ व ७५ पर श्री वीरसेनाचार्य ने स्पष्ट लिखा है कि सूक्ष्मसाम्परायसयत ( दसवें गुणस्थान ) तक धर्मध्यान रहता है और अकषायी जीवों अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान से शुक्लध्यान होता है । दोनों महानाचार्य हैं अतः यह नहीं कहा जा सकता कि कौनसा कथन युक्त है और कौनसा प्रयुक्त है । आगम प्रमाण के अतिरिक्त इस विषय में अन्य युक्ति कोई नहीं है ।
- जं. सं 30-1-58/VI / रा. दा. कैराना
करणानुयोग की अपेक्षा श्रसम्यग्दृष्टि जीव के धर्मध्यान संभव नहीं
शंका- जो करणानुयोग की दृष्टि से सम्यग्दृष्टि नहीं है, क्या उसके धर्मध्यान हो सकता है ? क्या शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि के धर्मध्यान हो सकता है ?
समाधान - दर्शन मोहनीयकर्म की तीन प्रकृति ( मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति ) तथा अनन्तानुबन्धीकोष - मान-माया लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय के बिना कोई भी जीव किसी भी अनुयोग से सम्यग्दृष्टि नहीं है । क्योंकि सम्यग्दर्शन का अभ्यन्तर साधन दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय है और साधन के बिना साध्य की उपलब्धि नहीं होती । इस विषय में आर्ष वाक्य निम्नप्रकार है
"साधनं द्विविधं अभ्यन्तरं बाह्य च । अभ्यन्तरं दर्शनमोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा ।"
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अर्थ - सम्यग्दर्शन का साधन दो प्रकार का है, अभ्यन्तर और बाह्य । दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम क्षय तथा क्षयोपशम अभ्यन्तर साधन है |
सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुतं तस्स जाणया पुरिसा । अंतरहेक भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी || ५३ || नियमसार
- सर्वार्थसिद्धि १७
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