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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
हो सकते हैं। शुक्लध्यान श्रेणी में होता है और हीन संहननवाला श्रेणी चढ़ नहीं सकता है अत: हीन संहननवाले के शुक्लध्यान नहीं हो सकता है।
-जें.ग. 10-8-72/X/र.ला. जैन, मेरठ
(१) शुभाशुभ उपयोगों के गुणस्थान
(२) सम्यक्त्वी के प्रातरौद्र ध्यान भी क्या शुभोपयोग हैं ? शंका-आगम में प्रथम से तीसरे गुणस्थान तक अशुभोपयोग कहा है तथा चतुर्थगुणस्थान से छठे गुणस्थान तक शुभोपयोग बताया है । [बृ० द्र० सं० ३४ टीका; प्र० सा० ९ जयसेनीय० ] परन्तु तत्वार्थसूत्र में कहा है कि 'सधशुभायुन मगोत्राणिपुण्यम् । अतोऽन्यत् पापम् ।' [ त० सू० ८।२५-२६ ] अर्थात् सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम एवं शुभगोत्र पुण्य प्रकृतियां हैं तथा इनके अतिरिक्त शेष पाप प्रकृतियां हैं। साता आदि शुभप्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत परिणामों को विशुद्धि तथा असाता आदि अशुभ प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत परिणामों को संक्लेश कहते हैं। [ धवल ६१८० ] आगमानुसार असाता आदि अशुभ प्रकृतियाँ छठे गुणस्थान तक बंधती हैं । [गो० क० ९८ ] अतः सिद्ध हुआ कि छठे गुणस्यान तक संक्लेश है । यह तो सर्वविदित ही है कि चतुर्थगुणस्थान में कृष्ण लेश्या भी होती है तथा प्रमत्तसंपतों के भी आतध्यान-अशुभध्यान पाया जाता है। देशसंयतों के परिग्रहानन्दी आदि रौद्रध्यान पाये जाते हैं। [त. सू० ९।३४-३५ एवं ध० २।४३५ ] इन सबकी जहाँ संभावनाएं हैं, ऐसे चतुर्थ से षष्ठ गुणस्थान वालों के शुभोपयोग भी कैसे माना जा सकता है ? ये क्रियाएँ तो अशुभोपयोग को बताती हैं । [ भावपाहुड ७६ ] क्या संक्लेश, कृष्णलेश्या आदि के काम में भी असंयत सम्यक्त्वी आदि के शुभोपयोग भाव कहा जाय ?
समाधान-संसार में दो पाप हैं-१. मिथ्यात्व और २. कषाय । प्रथम से तीसरे गुणस्थान तक दोनों पाप रहते हैं, अतः दोनों पापों की सदा विद्यमानता की दृष्टि से वहाँ प्रशुभोपयोग कहा है तथा चतुर्थ से छठे
चला गया तथा केवल कषाय पाप ही प्रवशिष्ट है, अतः इस दृष्टि [ एक पाप गुणस्थान में मिथ्यात्व नामक पाप चला के अभाव की दृष्टि ] से वहाँ शुभोपयोग कहा है । आगे के गुणस्थानों में [ अप्रमत्त से क्षीणकषाय तक ] बुद्धिपर्वक कषाय [ राग-द्वेष ] का भी अभाव हो गया तथा शुक्लध्यान है अतः वहाँ शुद्धोपयोग कहा गया है। सातिशय अप्रमतसंयतगुणस्थान में भी शुक्लध्यान है, अतः सातवें गुणस्थान में भी शुद्धोपयोग है ।
इस प्रकार एक विवक्षा में पापों के प्रभाव को अपेक्षा शुभाऽशुभ उपयोग कहा गया।
अन्यत्र तीन कषाय की अपेक्षा [ संक्लेश की अपेक्षा ] अशुभोपयोग और मन्द कषाय अर्थात् विशुद्धपरिणाम की अपेक्षा शुभोपयोग कहा गया है।
दोनों कथनों में भिन्न-भिन्न विवक्षा है, अन्य कोई बाधा नहीं है। [ प्रवचनसार गा० ९ को जयसेनाचार्य कृत टीका भी द्रष्टव्य है । ]
-पताचार 7-3-76/.../प्त. ला. जैन, भीण्डर प्रात व रौद्र ध्यान में भी "एकाग्रचिन्तानिरोध" होता है शंका-आर्त व रौद्र परिणामों को 'ध्यान' संज्ञा क्यों दी गई है ?
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