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बाह्य ेषु दशसु वस्तुषु, ममत्वमुत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । सन्तोषपरः,
स्वस्थः
परिचितपरिग्रहाद्विरतः ॥ २४ ॥ रत्न. श्रा. पंचमपरिच्छेद
श्री स्वामिकार्तिकेय ने तथा श्री समन्तभद्राचार्य ने जो आठवीं प्रतिमा का स्वरूप कहा है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि आजीविका संबंधी प्रारम्भ का त्याग आठवीं प्रतिमा में होता है, धर्म-कार्य सम्बन्धी आरम्भ का त्याग नहीं होता है । धर्म-कार्य के लिये आठवीं प्रतिमावाला सवारी में बैठ सकता है । नवमीं प्रतिमा में परिग्रह का भी त्याग हो जाता है, उसके पास रुपया-पैसा नहीं है, जिससे वह किराया देकर धर्म कार्य के लिये सवारी में जा सके, यदि कोई श्रावक नवमीं प्रतिमाधारी को अपने साथ सवारी में धर्म कार्य के लिये ले जाय तो नवमी प्रतिमाघारी उसके साथ जा सकता है, किन्तु स्वयं याचना नहीं करेगा ।
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
पंच कल्याणक प्रतिष्ठा धर्म-कार्य है, अतः उसके कराने में भी कोई बाधा नहीं है ।
क्षुल्लक भी मुनियों को प्राहारदान दे सकता है
शंका- लाटीसंहिता में देवपूजा और मुनियों को आहार देने का उत्कृष्ट श्रावक ( क्षुल्लक ऐलक ) तक के लिये प्रतिपादन किया है, वह कहाँ तक ठीक है ?
- जै. ग. 5-9-74 / VI / ब्र. फूलचन्द
समाधान - लाटीसंहिता सर्ग ७, श्लोक ६७-६८-६९ में क्षुल्लक के लिये दान व पूजन का विधान लिखा है, किन्तु नीचे टिप्पण भी लिखा है कि 'यह कथन काष्ठासंघ की अपेक्षा से है । मूलसंघ से इसमें अन्तर है ।' जिनेन्द्रदेव की भाव- पूजा और पात्रदान की अनुमोदना क्षुल्लक अवश्य कर सकता है ओर इसप्रकार पूजा व दान के द्वारा कर्मों का संवर व निर्जरा होती है ।
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- जै. सं. 25-7-57 |
क्षुल्लक एवं वीरचर्या
शंका- श्रावकाचार ग्रंथों में श्रावक के लिये वीरचर्या का निषेध है। क्या वीरचर्या में केशलोंच मो आ जाता है ? क्या क्षुल्लक केशलोंच कर सकता है ? क्या क्षुल्लक को भी नवधा भक्ति होती है ?
" / र. ला. कटारिया, केकड़ी
समाधान- 'केशलु ंचन' वीर चर्या नहीं है । क्षुल्लक केशलोंच कर सकता है । क्षुल्लक भी अतिथि है उसकी भी उसके पद के अनुकूल भक्ति होनी चाहिये ।
- जं. ग. 5-6-67 / IV / ब्र. कँवरलाल, जैन
क्षुल्लक "वर्णी" नहीं है
शंका- क्षुल्लक का अपने आपको वर्णों लिखना क्या उचित है ? कौनसी प्रतिमाधारी वर्णी होते हैं ?
समाधान - श्रावक की ग्यारह प्रतिमा होती है। उनमें से आदि की छहप्रतिमा के धारी तो गृहस्थ हैं । मध्य को तीन श्रर्थात् सातवीं, प्राठवीं और नौवीं प्रतिमाधारी वर्णी अर्थात् ब्रह्मचारी है और अन्त की दो प्रर्थात् दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमा के धारी भिक्षुक हैं, कहा भी है
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ass गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युः ब्रह्मचारिणः ।
frent द्वौ तु निर्दिष्टो ततः स्यात् सर्वतो यतिः ॥८५६ ॥ उपासकाध्ययन
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