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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
मोहतिमिरापहरणे दर्शन-लाभादवाप्त-संज्ञानः । रागद्वेष-निवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥४७॥ रागद्वषनिवृत्त हिसादि-निवर्तना कृताभवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नपतीन् ॥४८॥ हिसानतचौर्येभ्यो मंथनसेवा परिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥४९॥
अर्थ-दर्शनमोहरूप तिमिर को दूर होते संते सम्यग्दर्शन का लाभ तें प्राप्त भया है सम्यग्ज्ञान जाके ऐसा साधू अर्थात् निकट भव्य रागद्वेष का प्रभाव के अथि चारित्र अंगीकार करे है। ४७॥ रागद्वेष के अभाव तें हिंसादि का अभाव होय है ॥४८॥ हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन, परिग्रह; ये पाप प्रावने के पनाला हैं इनसे विरति (विरक्त) होना सो चारित्र ( व्रत ) है ॥४६॥ इसप्रकार श्री समन्तभद्राचार्य ने भी हिंसा आदि पाँच पापों से विरति (व्रत) को चारित्र कहकर रागद्वेष के प्रभाव के लिये अंगीकार करना कहा है। श्लोक १३७ में प्रथम प्रतिमा के श्रावक का स्वरूप बतलाते हए ( 'संसार-शरीर-भोगनिविण्णः' पद दिया है अर्थात प्रथम प्रतिमा धारक श्रावक "निरन्तर संसार, शरीर और इन्द्रियों के भोग ते विरक्त होय है। इन आगम प्रमाणों से सिद्ध है कि 'व्रत व प्रतिमा वीत. रागता का माप है न कि रागद्वेष का। यदि यहाँ पर कोई यह तर्क करे कि 'समयसार गाथा २६४ में अहिंसा आदि व्रतों को बंध का कारण कहा है और गाया १०५ में 'रागी जीव कम है' ऐसा कहा है अतः अहिंसा आदि व्रत राग हैं।' तो ऐसा तर्क उचित नहीं है, क्योंकि समयसार गाथा २६४ में व्रतों को पुण्यबंध का कारण नहीं कहा है किन्तु यह कहा है कि-जो व्रतों में अध्यवसान करता है वह पुण्य बांधता है। अर्थात् 'अध्यवसान' को बंध का कारण कहा है। गाथा २७१ को टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने 'अध्यवसान' का लक्षण इसप्रकार कहा है-स्वपर का अविवेक हो ( भेदज्ञान न हो) तब जीव की अध्यवसिति मात्र ( मिथ्या परिणति, मिथ्या निश्चय होना) अध्यवसान है।'
समयसार गाथा १९० में आस्रव का हेतु अध्यवसान कहा और अध्यवसान का लक्षण मिथ्यात्व, प्रज्ञान, अविरत व योग कहा है। मोक्षशास्त्र में भी मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय व योग को बंध का कारण कहा है (अध्याय ८ सूत्र १)। किसी ने भी व्रत को आस्रव या बंध का कारण नहीं कहा है। व्रत से तो अविरत संबंधी मानव रुककर संवर हो जाता है। मिथ्यात्व के उदय के अभाव में १६ प्रकृतियों का; अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव में २५ प्रकृतियों का, अप्रत्याख्यानावरणीयकषाय के अभाव में एकदेश व्रत हो जाने पर १० प्रकृतियों का और प्रत्याख्यानावरणीय के अभाव में सर्वदेश (मुनि ) व्रत होने पर ४ प्रकृतियों का आस्रव व बंध रुककर संवर हो जाता है और व्रतों के प्रभाव से देशसंयमी व सकल संयमी के प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा होती रहती है। (षट्खंडागम पृ० ७ व १० व १२ )। अन्यत्र भी कहा है
सम्मत्तं देशवयं महव्वयं तह जओ कसायाणं ।
एदे संवर णामा जोगा-भावो तहच्चेव ॥९५॥ स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थ-सम्यक्त्व, देशव्रत, महाव्रत, कषायनि का जीतना तथा योगनिका अभाव एते संवर के नाम हैं।
भावार्थ-पूर्व मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय, योगरूप पांच प्रकार आस्रव कहा था, तिनका रोकना सो ही संवर है। अविरति का अभाव एकदेश तो देशविरत विष होय और सर्वदेश प्रमत्तगुणस्थान विर्ष भया तहाँ अविरत का संवर भया। (पं0 जयचन्दजी कृत भाषा टीका )
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