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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार :
क्षल्लक व्रत की दीक्षा भोज्य कारुओं में ही देना चाहिये, अभोज्य कार में नहीं।" प्रतः अभोज्यकारु जैन मुनि या क्षुल्लक व्रत धारण नहीं कर सकता, किन्तु पाँच पापों का एक देश त्याग कर अणुव्रत पालन कर सकता है।
-जे.ग. 18-6-64/IX/ ब्र. लाभानन्द
स्वस्त्री सेवन में भी पाप तो है ही ,
शंका----स्वदारासंतोषवाधारी को क्या स्वस्त्री के भोग करने में पाप नहीं है?
समाधान-स्वस्त्री के साथ सम्भोग करने में पाप अवश्य है, किन्तु उससे अनन्तगुणा पाप पर-स्त्रीसेवन में है। यदि स्वस्त्री के सेवन में पाप न होता तो सप्तम प्रतिमा में श्रावक के और महाव्रतों में मुनि के स्त्री मात्र के साथ सम्भोग का क्यों त्याग होता ।
मैथुनाचरणे मूढ़ नियन्ते जन्तुकोटयः ।
योनिरन्ध्रसमुत्पन्ना लिंगसंघप्रपीडिताः ।।२१।। जानार्णव सर्ग १३ ___अर्थ-हे मूढ़ ! योनिरन्ध्र में असंख्यात करोड़ जीव होते हैं। स्त्रियों के साथ मैथुन सेवन करने से उनके योनि रूप छिद्र में उत्पन्न हुए असंख्यात करोड़ जीव लिङ्ग के आघात से पीड़ित होकर मरते हैं ।
हिस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् ।
बहवो जीवा योनी हिम्यन्ते मथुने तद्वत् ॥ १०८ ॥ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय अर्थ-जिस प्रकार तिलों की नली में तप्त लोहे के डालने से तिल नष्ट होते हैं, इसी प्रकार मैथुन के समय योनि में भी बहुत से जीव मरते हैं।
"घाए घाए असंखेन्जा।" अर्थात-लिंग के प्रत्येक आघात में असंख्यात करोड़ जीव मरते हैं।
संजदधम्मकहा वि य उवासयाणं सदारसेतोसो।
तसवहविरईसिक्खा थावरघादो ति णाणुमदो ॥ जयधवल पु. १ पृ. १०५ संयमी जनों की धर्म कथा भी उपासकों के स्वदारासन्तोष और प्रसवधविरति की शिक्षारूप होती है, अतः उसका यह अभिप्राय नहीं कि स्थावर घात की या स्वस्त्री रमण की अनुमति दी गई हो। तात्पर्य यह है कि संयम रूप किसी भी उपदेश से निवृत्ति ही इष्ट रहती है, उससे फलित होनेवाली प्रवृत्ति इष्ट नहीं।
-जं. ग. 10-8-72/IX/ र. ला. जैन, मेरठ प्रतिमा ग्रहण करना मनुष्यों में ही सम्भव है शंका-क्या मनुष्य ही प्रतिमा धारण कर सकते हैं ? शेष गतियों के जीव प्रतिमा धारण नहीं करते हैं?
समाधान-मनुष्य ही प्रतिमा धारण कर सकते हैं। सम्यग्दर्शन के २५ दोषों का त्याग, निरतिचार सप्तव्यसन-त्याग तथा अष्ट मूल गुण धारण करना; यह प्रथम प्रतिमा में पालनीय होता है।
-पताचार 5-12-75/--../न. ला. जैन, भीण्डर
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