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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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समाधान-रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ८४ में कहा है कि 'जिनचरणौ शरणम्पयातः।' जिसने जिनेन्द्र भगवान के चरणों की शरण लेली है वह अभक्ष्य का सेवन नहीं करता। श्लोक १३७ में कहा है कि पहली प्रतिमा वाले के पञ्चपरमेष्ठियों के चरण ही शरण है ( पञ्चगुरुचरणशरण:). तो वह अभक्ष्य का सेवन कैसे कर सकता है अर्थात नहीं कर सकता ।
पहली प्रतिमा वाला ( संसारशरीरभोगनिविण्णः ) संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होता है। जो अन्याय और अभक्ष्य का सेवन करता है, वह संसार शरीर और भोगों में रत होता है, विरक्त नहीं होता है। अतः पहली प्रतिमा वाला अन्याय व अभक्ष्य का सेवन नहीं करता है।
-जं. ग. 27-7-72/IX/ र. ला. जैन, मेरठ पाप का एकदेश त्याग ही अणुव्रत है शंका-क्या पाप का त्याग और अणुव्रत में कोई अन्तर नहीं है ? यदि है तो क्या ? समाधान-पाप का एकदेश त्याग अशुव्रत है और सकलदेश त्याग महावत है । कहा भी है । "देशसर्वतोणुमहती।" मोक्षशास्त्र ७/२ पाप के एकदेश त्याग और अणुव्रत में कोई अन्तर नहीं है।
-णे. ग. 16-12-71/VII/ सुलतानसिंह
तियंच के देशसंयम शंका-क्या कच्छप, मच्छ जीव को पंचम गुणस्थान तीन अन्तमुहूर्त कम एक कोटिपूर्व प्रमाण तक रह सकता है ? उस समय उनका मांसाहार होता है या क्या आहार होता है ?
समाधान-मच्छ कच्छप जीवों को पंचम गुणस्थान तीन अन्तर्मुहूतं कम एक कोटि पूर्व तक रह सकता है। कहा भी है-"मोहकर्म की २८ प्रकृतियों की सत्तावाला एक मिथ्या
। २८ प्रकृतियों की सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि मनुष्य या तिथंच मर कर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक सम्मूर्छन तियंच मच्छ-कच्छप मेंढ़कों आदि में उत्पन्न हुआ, सर्व लघु अन्तर्मुहूर्त द्वारा सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त हो [१] विश्राम ले [२] विशुद्ध होकर के [३] संयमासंयम को प्राप्त हुआ। इस प्रकार आदि के तीन अन्तर्मुहूतों से कम पूर्व कोटि प्रमाण संयमासंयम पंचम गुणस्थान का काल होता है" धवल पृ. ३५० ये जीव त्रसहिंसा के त्यागी होते हैं अतः इनके मांसाहार नहीं होता। वहां पर होने बाली वनस्पति मादि से अपनी भूख मिटा लेते हैं।
-जं. ग. 25-1-62/VII/ घ. ला. सेठी, खुरई
तियंच के अणुव्रत शंका-अणवत मनुष्य तथा तियंच ग्रहण करते हैं तब तियंच परिग्रहपरिमाणवत में क्या मर्यादा करता होगा? मनुष्य पानी छान कर अस की रक्षा कर जल पीता है तब तियंच पानी कैसे छानता होगा और उस की कैसे रक्षा करता होगा? अस रूपी मांस आहारवाला जल तिथंच श्रावक कैसे पीता होगा?
समाधान-अणुव्रती तिथंच बाह्य पदार्थ में मूर्छा को सीमित करके परिग्रहपरिमाण अणुव्रत का पालन करता है। तियंचों के भी बाह्य पदार्थों में मूर्छा होती है अन्यथा तियंचों के निर्ग्रन्थता का प्रसंग आ जायगा।
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