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यज्ञोपवीत
शंका- क्या जैनबन्धु के लिए यज्ञोपवीत धारण करना अनिवार्य है ? यदि है तो किस अवस्था में ? और धारण करने के क्या-क्या नियम हैं ?
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
समाधान - श्री महापुराण पर्व ३० श्लोक १०४ से १२२ में यज्ञोपवीत के सम्बन्ध में लिखा है गर्भ से आठवें वर्ष में बालक की उपनीत ( यज्ञोपवीत धारण ) क्रिया होती है। इस क्रिया में केशों का मुण्डन, व्रतबन्धन तथा मोजिबन्धन की क्रियाएं की जाती हैं। प्रथम ही जिनालय में जाकर बालक जिनेन्द्रदेव की पूजा करता है, फिर उस बालक को व्रत देकर उसका मोजिबन्धन किया जाता है अर्थात् उसकी कमर में मूंज की रस्सी बाँधी जाती है। उस बालक को चोटी रखनी चाहिए, सफेद धोती- दुपट्टा पहनना चाहिए वह बालक व्रत के चिह्नस्वरूप यज्ञोपवीत धारण करता है, उस समय यह ब्रह्मचारी कहलाता है। विद्याध्ययन के पश्चात् वह साधारण व्रतों का तो पालन करता है, परन्तु अध्ययन के समय जो विशेष व्रत ले रखे थे, उनका परित्याग कर देता है। उसके मद्य, मांस, मधु, पाँच उदम्बर फलों तथा हिंसा आदि पाँच स्थूल पापों का त्याग जीवन पर्यन्त रहता है ।
- सं. 10-5-56 / VI / आ. सो. बारां
यज्ञोपवीत श्रागमानुकूल है
यज्ञोपवीत - १४ मार्च १६५७ के जैनसंदेश में श्री मोहनलाल की शंका का समाधान करते हुए पं० नाथूलालजी प्रतिष्ठाचार्य इंदौर ने संक्षेप में इतना लिख दिया था कि 'यज्ञोपवीत संस्कार महापुराण आदि शास्त्रों में बताया है । यज्ञोपवीत रत्नत्रय का चिह्न है । प्रतिष्ठा में इन्द्र की दीक्षाविधि में इसको आभूषण माना है ।'
२० जून १९५७ के जैनसंदेश में श्री बंशीधर जैन एम. ए. शास्त्री का इस समाधान के विषय में एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें यज्ञोपवीत अनावश्यक बताते हुए यह लिखा है कि 'महापुराण मात्र में जो यज्ञोपवीत का उल्लेख मिलता है वह वैदिक संस्कारों का प्रभावमात्र है । ग्रन्थकर्ता ने समय की आवश्यकता देखते हुए इसका उल्लेखमात्र कर दिया है। महापुराण में इसे चक्रवर्ती भरत के पूछने पर भ० ऋषभदेव से पाप सूत्र कहलाकर निषेध कर दिया है।'
इस लेख के विषय में अधिक न लिखकर केवल इतना ही लिखना पर्याप्त समझता हूँ कि 'महापुराण' में यज्ञोपवीत को पापसूत्र कहा हो ऐसा मेरे देखने में नहीं आया। शास्त्रीजी ने भी सर्ग व श्लोक संख्या आदि का उल्लेख नहीं किया। महापुराण सर्ग ३९ में सज्जाति नाम की पहली क्रिया का कथन करते हुए श्री भगवज्जिनसेन ने श्लोक ९४ व ९५ व ११७ में इस प्रकार कहा है- सर्वज्ञदेव की आज्ञा को प्रधान माननेवाले वह द्विज जो मंत्रपूर्वक सूत्र धारण करता है वहीं उसके व्रतों का चिह्न है, वह सूत्र द्रव्य व भाव के भेद से दो प्रकार का है ||१४|| तीनलार का जो यज्ञोपवीत है वह उसका द्रव्यसूत्र है और हृदय में उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी गुरणों से बना हुआ जो श्रावक का सूत्र है वह उसका भावसूत्र है ||६|| 'हम लोग स्वयं के मुख से उत्पन्न हुए हैं इसलिये देवब्रह्म हैं और हमारे व्रतों का चिह्न शास्त्रों में कहा यह पवित्र सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत है ॥११७॥' महापुराण सर्ग चालीस में भी इसप्रकार कहा है 'तदनन्तर गणधरदेव के द्वारा कहा हुआ व्रतों का चिह्नस्वरूप और मन्त्रों से पवित्र किया हुआ सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। यज्ञोपवीत धारण करने पर वह बालक द्विज कहलाने लगता है । १५८। जिसका यज्ञोपवीत हो चुका है ऐसे बालक के लिए शिर का चिह्न (मुण्डन) वक्ष:स्थल का चिह्न यज्ञोपवीत, कमर का चिह्न-मूंज की रस्सी और जांघ का चिह्न सफेद धोती ये चार
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