________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[६८९
सम्यक्त्वी की क्रियाएँ शंका-सम्यग्दृष्टि जितनी भी क्रिया करता है क्या अबुद्धिपूर्वक ही करता है ?
समाधान-समयसार गा० १७२, कलश ११६ की टीका के भावार्थ में पं० जयचन्द्रजी ने इसप्रकार लिखा है-"बुद्धिपूर्वक अबुद्धिपूर्वक की दो सूचनायें हैं । एक तो यह कि आप तो करना नहीं चाहता और परनिमित्त से जबरदस्ती से हो, उसको आप जानता है तो भी उसको बुद्धिपूर्वक कहना और दूसरा वह कि अपने ज्ञानगोचर ही नहीं, प्रत्यक्षज्ञानी जिसे जानते हैं तथा उसका अविनाभावी चिह्न कर अनुमान से जानिये उसे अबुद्धिपूर्वक जानना।"
रागद्वेषादि रूप कार्य सम्यग्दृष्टि करना नहीं चाहता किन्तु कर्मोदय के अनुसार उसको करना पड़ता है। जिसप्रकार रोगी औषधि सेवन करना नहीं चाहता किन्तु रोग की वेदना के कारण वह औषधि को जानबूझ अपनी इच्छा के बिना सेवन करता है किन्त सेवन करते हए भी यह परिणाम रहते हैं कि मैं किस और प्रौषधि से मुझको छुटकारा मिले । यद्यपि औषधि स्वादिष्ट क्यों न हो फिर भी रोगी की उक्त भावना रहती है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि की यह भावना रहती है कि कर्मो से कब मुक्त होऊँ जिससे इन क्रियाओं से छुटकारा मिले। इस भावना की दृष्टि से सम्यग्दृष्टि की क्रिया को अबुद्धिपूर्वक कह देते हैं किन्तु निचली अवस्था में सम्यग्दृष्टि जानबूझकर अपनी इच्छापूर्वक कार्य करता है अतः निचली अवस्था में सम्यग्दृष्टि की क्रिया बुद्धिपूर्वक होती है, ऐसा कहा भी है -बुद्धिपूर्वकास्ते परिणामा ये मनोद्वारा बाह्यविषयानालंब्य प्रवर्तते, प्रवर्तमानाश्च स्वानुभवगम्या: अनुमानेन परस्यापि गम्या भवन्ति । अबुद्धिपूर्वकास्तु परिणामा इन्द्रियमनोव्यापारमंतरेण केवलमोहोदयनिमित्तास्ते तु स्वानुभवागोचरत्वावबुद्धिपूर्वका इति विशेषः । जो रागादि परिणाम मन के द्वारा बाह्य विषयों का आलम्बन लेकर प्रवर्तते हैं और जो प्रवर्तते हुए जीव को निज को ज्ञात होते हैं तथा दूसरों को भी अनुमान से ज्ञात होते हैं वे परिणाम बुद्धिपूर्वक हैं और जो रागादि परिणाम इन्द्रिय, मन के व्यापार के अतिरिक्त मात्र मोहोदय के निमित्त से होते हैं तथा जीव को ज्ञात नहीं होते वे अबुद्धिपूर्वक हैं। इन अबुद्धिपूर्वक परिणामों को प्रत्यक्षज्ञानी जानता है, और उनके अविनाभावी चिह्नों के द्वारा वे अनुमान से भी ज्ञात होते हैं। इसप्रकार अपेक्षाकृत भेद होने से सम्यम्दुष्टि की क्रियाएँ बुद्धिपूर्वक भी होती हैं और अबूद्धिपूर्वक भी।
-नं. स. 27-12-56/VI/ क. दे. गया सम्यक्त्वी की शुभ क्रियाएँ बुद्धिपूर्वक होती हैं शंका- सम्यग्दृष्टि के लिये व्रत, समितिआविरूप चारित्र उपादेय बतलाया है । सम्यग्दृष्टि के व्रत समिति आविरूप जो क्रिया होती है वह बुद्धि पूर्वक होती है या बिना बुद्धि के ?
समाधान-जिस समय तक साधु निर्विकल्पसमाधि में स्थित नहीं होता है उस समय तक उस सम्यग्दृष्टि साधु के आहार-विहार आदि के लिये जो भी क्रिया होती है वह बुद्धिपूर्वक होती है । कहा भी है
"बुद्धिपूर्वकास्ते परिणामा ये मनोद्वारा बाह्यविषयानालंब्य प्रवर्तते, प्रवर्तमानाश्च स्वानुभवगम्याः अनुमानेन परस्यापि गम्या भवति । अबुद्धिपूर्वकास्तु परिणामा इन्द्रियमनोव्यापारमंतरेण केवल मोहोदयनिमित्तास्ते तु स्वानुभवागोचरस्वावबुद्धिपूर्वका इति विशेषः।"
जो परिणमन मन के द्वारा बाह्य विषय का आलंबन लेकर होता है और अपने अनुभव में आता है तथा दूसरे भी अनुमान द्वारा जानते हैं वह परिणमन बुद्धिपूर्वक होता है । जो परिणमन इन्द्रिय व मन के व्यापार के बिना मात्र मोहनीय कर्मोदय के निमित्त से होता है और अपने अनुभव में भी नहीं आता वह अबुद्धिपूर्वक है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org