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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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सम्बन्धी अर्थ पर्याय या व्यंजनपर्याय है उतना ही द्रव्य है । केवल आध्यात्मिक ग्रन्थों की स्वाध्याय करनेवाले
अकसर जीव द्रव्य की शुद्ध अवस्थामात्र को ही जीव द्रव्य मान बैठते हैं । पर द्रव्य के निमित्त से जीव की प्रशुद्ध पर्याय होती है उसका ठीक-ठीक भान न होने से यह एकान्त श्रद्धान हो जाता है कि एक द्रव्य का परिणमन दूसरे द्रव्य के परिणमन में प्रकिचित्कर है और इसप्रकार निमित्त-मंमित्तिक सम्बन्ध का लोप कर देने से द्रयसंयम से उनकी उपेक्षाबुद्धि हो जाती है और बिना द्रव्यसंयम के भावसंयम नहीं हो सकता। कहा भी है-न तासां भावसंयमोऽस्ति भावासंयमाविनाभा विवस्त्राद्य पादानान्यथानुपपत्तेः । उनके भावसंयम नहीं है, क्योंकि उनके भाव असंयम का अविनाभावी वस्त्रादिक का ग्रहण करना नहीं बन सकता। द्रव्यसयम में केवल उपेक्षाबुद्धि ही नहीं हो जाती, किन्तु वह यह मानने लगता है कि जब द्रव्य के निमित्त से मेरी हानि या लाभ नहीं होता तो मैं त्याग क्यों करूँ और यदि त्याग करता हूँ तो परद्रव्य से हानि मानने से मिध्यादृष्टि हो जाऊँगा । इस एकान्त श्रद्धा का यह दुष्परिणाम हुआ कि जिनके रात्रि जल त्याग था वे रात्रि में जल पीने लगे और कहते हैं कि परद्रव्य ( रात्रि जल ग्रहण ) से व्रत भंग नहीं होता। एक सज्जन ने सप्तम भावक के व्रत अंगीकार किये, शुल्लक व्रत के अभ्यास के लिए केवल एक लंगोट घोर एक चादर रखते थे, किन्तु आत्मधर्म मासिक पत्र को पढ़ना प्रारम्भ कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने फिर वस्त्र ग्रहण कर लिये, रात्रि में भोजन करने लगे, ढाबा अर्थात् होटल का बना भोजन खाने लगे । यहाँ तक ही नहीं, जिनके बहुत दिनों से हर प्रकार की सवारी का त्याग था वे भी अब निश्शङ्क रेल मोटर आदि की सवारी करने लगे। रेल या मोटर की सवारी में जो पहले पाप था क्या अब वह पाप नहीं रहा? ग्राजकल बहुधा, मात्र अध्यात्मग्रन्थों का स्वाध्याय करने वाले, अध्यात्म का वास्तविक स्वरूप न समझ कर एकान्त मिथ्यात्व का प्रचार कर रहे हैं जिसके कारण अनेक भोले दिगम्बर जैन भाई भी सत्यमार्ग से युत होकर एकान्त मिथ्यामार्ग में लग गये हैं ।
श्रीमान् जैनधर्मभूषरण ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी ने श्री समयसार टीका की भूमिका में इस प्रकार लिखा है "यह समयसार ग्रंथ बहुत उच्चतम कोटि का एक अतिगहन और सूक्ष्म मोक्षमार्ग पथ है । इस पर वही चल सकता है जो पहले और बहुत से उन ग्रन्थों का मनन कर चुका है जिनमें इन सात तत्वों का विस्तार से व्याख्यान है इसलिए उचित है कि मुमुक्षु जीव द्रश्यसंग्रह तस्वार्थ सूत्र, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड प्रादि का अवश्य अभ्यास करे। तो भी प्राचीनकाल के अनेक रोगी किस तरह ( कर्म ) रोग रहित हुए और भावों का क्या-क्या फल होता है। इनके दृष्टान्तों को जानने के लिए श्री ऋषभदेव आदि त्रेसठ महापुरुष व अन्य महापुरुषों के चरित्र को कहने वाले प्रथमानुयोग का अभ्यास करे। जिस लोक में यह सब चरित्र हुए उसका विशेष स्वरूप जानने के लिये त्रिलोकसार आदि करणानुयोग का अभ्यास करे। गृहस्थ और साधुओं को कैसे बाह्य आवरण करना, आहार-विहार व व्यवहार करना, इनका विशेष जानने को रत्नकरण्ड श्रावकाचार पुरुषार्थसिद्धच पाय चारित्रसार, मूलाचार आदि चरणानुयोग का अभ्यास करे। फिर पीछे सूक्ष्म आत्मतत्व की घोर लक्ष्य जमाने के लिए परमात्मप्रकाश, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय का अभ्यास करे तथा जैन न्याय का स्वरूप परीक्षामुख आदि ग्रन्थों से जाने | फिर जो कोई इस समयसार ग्रन्थ का अभ्यास करेगा वह इसके सूक्ष्म और आनन्दमय पथ पर स्थिर रह कर अपना हित कर सकेगा।"
इसी बात का समर्थन कविवर पण्डित बनारसीदासजी की जीवनी 'अर्धकथानक' से भी होता है । आध्यात्मिक ग्रन्थों के स्वाध्याय का निषेध नहीं है, किन्तु इतनी योग्यता होने पर ही उनका स्वाध्याय करना उचित है | पहले प्रथमानुयोग, फिर चरणानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग, न्यायशास्त्र पर अन्त में प्राध्यात्मिक ग्रन्थ- इस क्रम से स्वाध्याय करने से विशेष लाभ होगा । वस्तुस्वरूप में भूल नहीं होगी।
- जं. सं. 15-11-56 / V1 / दे. घ.
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