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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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उत्पन्न करता है । आपका दर्शन होने पर जो जीव अपने को अतिशय कृतार्थ नहीं मानता वह संसार में भ्रमण करता रहता है । हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर कल्याण की परम्परा बिना बुलाये पुरुष के आगे चलती है।
भक्तिर्या समभूदिह स्वयि दृढ़ा पुण्यै पूरोपाजितः । संसारार्णवतारणे जिन ततः, सैवास्तु पोतो मम ।९।३०॥
पूर्वोपाजित महान् पुण्य से आपकी दृढ़ भक्ति का अवसर प्राप्त हुआ है, वह भक्ति ही संसार समुद्र से पार करने के लिये जहाज है । अर्थात् महान् पुण्य-उदय से जिन भक्ति मिलती है और वह जिन भक्ति ही संसार से पार कर मोक्ष प्राप्त करा देगी।
यहाँ पर यह प्रश्न हो सकता है कि जिनेन्द्र भगवान परद्रव्य हैं, उनकी भक्ति से मोक्ष पद कैसे प्राप्त हो सकता है ? इसके उत्तर स्वरूप श्री पूज्यपाद आचार्य कहते हैं
मिन्नात्मानमुपास्यात्मा, परो भवति तादृशः। वर्ति दीपं यथोपास्यात्मा, भिन्ना भवति तादृशी ।।९७॥ ( स. श.)
यह आत्मा अपने भिन्न अर्हन्त सिद्ध रूप परमात्मा की उपासना ( भक्ति ) करके उन्हीं के समान परमात्मा बन जाता है, जैसे दीपक से भिन्न अस्तित्व रखने वाली बत्ती भी दीपक की उपासना करके दीपक बन जाती है।
इन आर्ष वाक्यों से यह सिद्ध हो जाता है कि जिनभक्ति बड़े सौभाग्य से प्राप्त होती है। जिनभक्ति करके सम्यग्दष्टि अपूर्व प्रानन्द का अनुभव करता है । प्रभु-भक्ति के लिये सम्यग्दृष्टि उत्साहित रहता है। उसको
आकुलता या दुःख नहीं होता है। लौकिक वैभव में जो मासक्त हैं, वे ही जिन भक्ति में दुःख की जलन का अनुभव करते हैं।
अवतीजनोचित क्रियाएँ
स्वाध्याय
शंका-अज्ञानरूपी अन्धकार में यदि गुरु रूपी दीपक न हों तो क्या स्वाध्याय मात्र से अज्ञान दूर हो जाएगा। जबकि हम शास्त्रों के शब्दों का अर्थ भी नहीं समझते हों ?
समाधान-विद्वानों द्वारा महान् ग्रन्थों का भी अनुवाद होकर सरल हिन्दी भाषा में उपलब्ध है। पं० सदासुखदासजी, पं० जयचन्दजी, पं० टोडरमल जी द्वारा विस्तार सहित अनेक ग्रन्थों को टीकायें लिखी गई हैं जिनको साधारण जन भी सरलतापूर्वक समझ सकते हैं। इन प्राचीन विद्वानों की टीकाओं का स्वाध्याय करने से अज्ञामरूपी अन्धकार दूर हो सकता है। स्वाध्याय के समय मन-वचन-काय एकाग्र रहते हैं। स्वाध्याय अन्तरंग तप है। स्वाध्याय के समय विषय-कषायरूप परिणति नहीं होती है। अतः स्वाध्याय के समय जो ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध भी होता है वह मंद अनुभाग को लिये हुए होता है। पहले बंधे हुए ज्ञानावरण कर्मो का तीव्र अनुभाग भी संक्रमण या अपकर्षण को प्राप्त होकर मन्द अनुभागरूप हो जाता है । स्वध्याय के काल में प्रतिसमय असंख्यातगणी निर्जरा होती है । इसप्रकार स्वाध्याय से अज्ञानरूपी अन्धकार दूर होता है। कहा भी है-अभिमत फलसिद्ध
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