________________
६७६ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : मोक्षमार्ग को रुचि वाले को रागद्वेषनाशक भगवान की भक्ति अवश्य रुचती है १ प्रश्न-श्री रतनचन्दजी मुख्तार सहारनपुर:-- महाराज ! जिसे मोक्ष मार्ग रुचता है, उसे जिनेन्द्रदेव की भक्ति रुचती है या नहीं ?
उत्तर-पू० क्षु० वर्णीजी महाराजः--
मेरा तो विश्वास है कि जिसको मोक्षमार्ग रुचता है उसको जिनेन्द्रदेव की भक्ति तो दूर रही, सम्यकदृष्टि की जो बातें हैं वह सब उसको रुचती हैं।
'ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ।' आचार्य श्री उमास्वामी मोक्षमार्ग का निरूपण कर्ता, मंगलाचरण क्या करते हैं:
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृतां ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये ।। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, विश्व तत्त्व ज्ञातारं अहं वंदे, काहे के लिये तदरणलब्धये-तदगणों की लब्धि के लिये । तो उनमें जो भक्ति हुई, भगवान की जो भक्ति हुई, स्तवन हुआ, भगवान् का जो स्तवन हुआ तो भक्ति स्तबन वगैरह का वर्णन किया-स्तुति क्या चीज है ? गुणस्तोक सदुल्लध्य तद् बहुत्व कथा स्तुतिः । वह स्तुति कहलाती है कि थोड़े गुण को उल्लंघन करके उसको बहुत कथा करना उसका नाम स्तुति है। भगवान के अनन्त गुण हैं । वक्तुम् अशक्यत्वात् उनके कथन को करने में अशक्त हैं । अनन्त गुण हैं । भक्ति वह कहलाती है कि गुणों में अनुराग हो उसका नाम भक्ति है । भगवान् के अनन्त गुण हैं उनको कहने को हम अशक्त हैं, कह नहीं सकते तो भी जैसे कोई अमृत का समुद्र का अन्तस्तल स्पर्श करने में असमर्थ है; अगर उसे ( उपरि) स्पर्श भी हो जाय तो शांति का कारण है, तो भगवान् के गुणों का वर्णन करना दूर रहा, उसका स्मरण भी हो जाय तो हमको संसार ताप की विच्छित्ति का कारण है इस वास्ते भगवान का जो स्तवन है वह गुणों में अनुराग है। गुणों में अनुराग कौन-सी कषाय को पोषण करनेवाला है। जिससमय भगवान की भक्ति करोगे । अनन्तज्ञानादिक गुणोंका स्मरण ही तो होगा। अनन्त ज्ञानादिक गुणों के स्मरण होने में कौन-सी कषाय पुष्टि हुई। क्या क्रोध पुष्ट हुआ या मान पुष्ट हुप्रा या माया पुष्ट हुई या लोभ पुष्ट हुआ। तो मेरा तो यह विश्वास है कि उन गुणों को स्मरण करने से नियम से अरहन्त को द्रव्य गुण पर्याय करके जो जानता है वो परोक्ष में अरहन्त है, वह साक्षात् अरहंत है। वह परोक्ष में वही गुण तो स्मरण कर रहा है। तो भगवान की भक्ति तो सम्यकज्ञानी हो कर सकते हैं, मिथ्याइष्टि नहीं। परन्तु कबतक ? तो पंचास्तिकाय में कहा कि भगवान की भक्ति मिथ्याष्टि भी करता है और सम्यकदृष्टि भी करता है। परन्तु यह जो है, उपरितन गुणस्थान चढ़ने को असमर्थ है इस वास्ते अस्थाने रागादि निषेधार्थ', अस्थान जो हैं कुदेवादिक हैं उनमें रागादिक न जाय अथवा 'तीव्ररागज्वर निषेधार्थ' उसको प्रयोजनकहा है कि तीव्ररागज्वर मेरा चला जाय वो भगवान् को भक्ति करता है। इस वास्ते जो श्रेणी मांडते हैं वे उत्तम पुरुष हैं। उनको तो वस्तु-विचार रहता है । उनको तो प्रात्मा की तरफ दृष्टि है, नहीं जाने घर की, न पट की। कोई पदार्थ चितवन में आजाय तो वह विषका बीज जो रागद्वेष था वह उनका चला गया । हमारा विष का बीज
१. नोट-यहां यद्यपि समाधाता ही रांकाकारके रूप में प्रस्तुत हुए हैं और समाधाता महाविद्यान पू० क्ष० गणेशप्रसादजी वणी न्यायाचार्य है। तदपि अत्यपयोगी जानकर इसे भी यहाँ लिया गया है। -सम्पादक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org