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________________ ६७. ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । नात्यद्भुतं भुवन भूषण भूतनाथ, भूतगुण विभवन्तमभिष्टुवंतः। तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किवा, भूत्याश्रितं य इह नारमसमं करोति ॥१०॥ भक्तामर स्तोत्र अर्थ-हे जगत्भूषण जगदीश्वर ! संसार में जो भक्त पुरुष आपके गुणों का कीर्तन करके आपका स्तवन करते हैं, वे आपके समान भगवान बन जाते हैं, तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है, क्योंकि वह स्वामी किस काम का. जो अपने दास को अपने समान न बना सके । एकीभावं गत इव मया, यः स्वयं कर्मबन्धो, घोरं दुःखं भवभवगतो, दुनिवारः करोति । तस्याप्यस्य स्वयि जिन-रवे भक्तिरुनुमुक्तये चेत्, जेतु शक्यो भवति न तया कोऽपरस्ताप हेतु ॥१॥ एकीभाव स्तोत्र अर्थ हे जिनसूर्य ! आपकी भक्ति भव भव में उपार्जन किये हुए और निवारण करने के लिये अशक्य माजी कर्मबंध मानो मेरे साथ एकत्व को प्राप्त होकर भयंकर दःखों को देता है. ऐसे उस कर्म के भी नाश । निर्जरा करने के लिये समर्थ है तो अन्य ऐसा कौनसा ताप होने वाला है जो उस भक्ति के द्वारा नहीं जीता जा सकता अर्थात् जिस जिनेन्द्र-भक्ति के द्वारा अनेकों भव में संचित किये कर्मों का नाश हो जाता है तो अन्य क्षुद्र उपद्रव उस भक्ति के द्वारा शांत हो जाते हैं, इसमें क्या आश्वयं है ? श्री वीरसेन स्वामी गुरु-परम्परा से प्राप्त सर्वज्ञोपदेशानुसार धवल व जयधवल जैसे महान् प्रन्थों में लिखते हैं'मिणबिबरसणेण णित्तणिकाचिदस्स बि मिच्छताविकम्मकलावस्स खयदसणादो।' धवल पु• ६ पृ. ४२७-४२८ अर्थ-जिन बिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचितरूप भी मिथ्यात्वादि कर्म-कलाप का क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिम्ब का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण होता है। अरहंतणमोक्कारो संपहियबंधायो असंखेज्जगुणकम्मक्खयकारोति तस्थ वि मुणोणं पतिप्पसंगावो।" ज. . पु. १ पृ.९ अर्थ-अरहंत-नमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्म-निर्जरा का कारण है इसलिए अरहंत-नमस्कार में भी मुनियों की प्रवृत्ति प्राप्त होती है। श्री कुन्दकुन्द भगवान मूलाचार के सातवें अधिकार में कहते हैं अरहंतणमोक्कार-भावेण, य जो करेवि पयडमदी। सो सम्वदुक्खमोक्खं पावइ, अधिरेण कालेण ॥६॥ सिद्धाणं णमोक्कारं भावेण, य जो करेवि पयउमवी। सो सम्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥९॥ एवं गुणजुत्ताणं पंचगुरुणं विसुबकरणेहि । जो कुणवि णमोक्कारं सो पावदि णिन्युषि सिग्धं ॥१९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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