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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६६७ 'तं च परमागमुवजोगादो चेव णस्सदि । ण चेदमसिद्ध, सुहसुद्धपरिणामेहिं कम्मक्खया भावे तवख्याववत्तदो ।' ज. ध. पु० १ पृ. ६ यदि कोई कहे कि परमागम के उपयोग से कर्मों का नाश होता है यह बात प्रसिद्ध है सो भी ठीक नहीं है, अर्थात् परमागम के उपयोग से कर्मों का नाश होता है। क्योंकि यदि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता । स्वाध्याय अंतरंग तप है और तप से कर्मों का क्षय होता है । 'तपसा निर्जरा च । प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरम् ।' यहाँ पर तप से कर्मों की प्रविपाक निर्जरा बतलाई है । स्वाध्याय अंतरंग तप है। अतः स्वाध्याय से कर्मों की अविपाक निर्जरा होती है । - जै. ग. 25-11-71 / VIII / र. ला. जैन जिन भक्ति ( दर्शन पूजन आदि ) श्रासव बन्ध के साथ संवर निर्जरा की भी कारण है शंका- भावपूर्वक देवदर्शन व पूजन पुण्यासव अर्थात् कर्मबंध करने वाली हैं या दोनों ? कैसे और क्यों ? समाधान- इस शंका के समाधान के लिये प्रथम धर्म की व्याख्या और धर्म के भेद प्रतिभेदों पर विचार करना होगा । समन्तभद्र आचार्य धर्म का लक्षण निम्न प्रकार कहते हैं - त. सू. अ. ९ सूत्र ३ व २० देशयामि समीचीनं, धर्म कर्म निबर्हणम् । संसारदुःखतः सत्त्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २ ॥ सष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । अर्थ -- जो जीवों को संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम सुख में पहुँचाता है वह कर्म नाशक उभय लोक में उपकारक धर्मं है । धर्मं के उपदेशक जिनेन्द्र ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और व्रतों ( चारित्र ) को धर्म कहा है । Jain Education International हिसानृतचौर्येभ्यो, मेथुनसेवा परिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकेभ्यो, विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥ ४९ ॥ सकलं विकलं धरणं, तत्सकलं सर्वसङ्गविरतानाम् । अनगाराणां विकलं, सागाराणां ससङ्गानाम् ॥ ५० ॥ रत्न. भा. अर्थ - पापास्रव के कारण हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह से विरक्त होना सम्यग्ज्ञानी का चारित्र है । वह चारित्र सर्वदेश और एक देश के भेद से दो प्रकार का है । समस्त परिग्रहादि पापों से विरक्त होना मुनियों का सकल चारित्र है । भोर परिग्रहधारी गृहस्थों के एक देश चारित्र होता है । श्री स्वामी कार्तिकेय ने भी गृहस्थ और मुनि धर्म के भेद से दो प्रकार का धर्म कहा है वो धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं । पढमो बारह-भेओ वह भेओ मासिओ विदिओ ॥ ३०४ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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