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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : .
कुव्वते अभिसेयं ताण महाविभूदोहिं देविदा। कंचणकलसगदेहि विमल जलेहिं सुगंधेहि ॥ १०४ ॥ कुकमकप्पूरेहि चंदणकालागरूहि अण्णेहि ।
ताणं विलेवणाई ते कुटबते सुगंधेहि ॥ १०५ ॥ अर्थ-देवेन्द्र महान् विभूति के साथ इन प्रतिमानों का सुवर्ण कलशों में भरे हुए सुगन्धित निर्मल जल से अभिषेक करते हैं। वे इन्द्र कुकुम, कपूर, चन्दन, कालागरु और अन्य सुगन्धित द्रव्यों से उन अरिहंत प्रतिमाओं का विलेपन करते हैं।
अभिषेक पूजन का एक अंग है जो आगमोक्त है । जिनप्रतिमा की पवित्रता के लिये भी अभिषेक नहीं होता है, क्योंकि नन्दीश्वरद्वीप की अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं पर धूलि आदि नहीं बैठती है। पूजक अपनी पवित्रता के लिये अभिषेक करता है।
ऐसे प्रभू को शांतिमुद्रा को न्हवन जलते करें। 'जस' भक्ति वश मन उक्तितै हम भानु ढिग दीपकधरें ॥ तुमतौ सहज पवित्र यही निश्चय भयो । तुम पवित्रता हेत नहीं मज्जन ढयो । मैं मलीन रागादिक मलते ह्व रह्यो । महा मलिन तन में वसु विधि वश दुख सह्यो। पापाचरण तजि हवन करता चित्त में ऐसे धरू। साक्षात श्री अरहंत का मानों न्हवन परसन करू॥ ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नसि शुभ बंधते। विधि अशुभ नसि शुभ बंधतें शर्म सब विधि तासते ॥ धन्य ते बड भागि भवि तिन नीव शिवधर को धरि ।
वर क्षीरसागर आदि जल मणिभ भरि भक्ति करि॥ जिनवाणी संग्रह में प्रकाशित अभिषेक पाठ के कुछ पद्य दिये गये हैं इससे पूजक का भाव स्पष्ट हो जाता है।
-ज. ग. 22-10-70/VIII/ हंसकुमार अभिषेक के समय क्या बोलना चाहिए शंका-भगवान का अभिषेक करते समय पंचमंगल बोलना ठीक है अथवा अभिषेक पाठ बोलना चाहिये ?
समाधान-अभिषेक के समय अभिषेक पाठ का ही उच्चारण होना चाहिये। जिस समय जो क्रिया हो रही है उस समय उसी के अनुरूप पाठ होना चाहिये।
-ज. ग. 12-8-71/VII/रो. ला. जैन यज्ञ का अर्थ पूजा अथवा हवन है शंका-जैनधर्म के अनुसार 'यज्ञ' शब्द का क्या अभिप्राय है ?
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