SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 698
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । भावना से रहित सम्यग्दृष्टि मध्यमपात्र है, व्रत, शीलादि से सहित सम्यग्दृष्टि उत्तमपात्र है, व्रत, शीलादि से रहित मिथ्याइष्टि अपात्र है । म. पु. पर्व २० श्लो. १३९.१४१ । श्री जिनसेनाचार्य ने पात्र और प्रपात्र ऐसे दो भेद कहे और व्रतसहित मिथ्यादष्टि को जघन्यपात्र कहा है, किन्तु अन्य आचार्यों ने पात्र, कुपात्र, अपात्र ऐसे तीन भेद कहे हैं और व्रतसहित मिथ्यादष्टि को कुपात्र कहा है। -ज.ग. 19-12-66/VIII/R.ला.जैन, मेरठ अपात्रों में करुणादान शंका-सुपात्रों के अतिरिक्त क्या अन्य को भी दान देना चाहिये ? समाधान-मंत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ ये चार प्रकार की भावना मोक्षशास्त्र सप्तम अध्याय में कही गई है। जिन जीवों को दुःखी देखकर मन में करुणा उत्पन्न हो जावे ऐसे जीवों को करुणादान देना चाहिये। कहा भी है-अतिवृद्ध, बालक, गूगे, अंधे, बहरे, परदेशी, रोगी, दरिद्री जीवों को करुणादान देना चाहिए।' वसु. भा. गाथा २३५। -. ग. 12-12-63/IX/ प्रकाप्रपन्द पात्र-कुपात्र का स्वरूप एवं पात्र कुपात्र अपात्र दान का फल शंका--पात्र और कुपात्र का क्या स्वरूप है ? पात्र और कुपात्र से पुण्यबन्ध में कैसे भेव पड़ता है ? समाधान-सम्यग्दृष्टिजीव पात्र हैं । व्रत, तप और शीलसे सम्पन्न, किन्तु सम्यग्दर्शन से रहित जीव कुपात्र हैं। कहा भी है तिविहं मुरणेहपत्त, उत्तममजिसम जहण्णभेएण । वणियमसंजमधरो उत्तमपत्त हवे साहु ॥२२१॥ एयारस ठाणठिया, मज्झिमपसंखु सावया भणिया। अविरबसम्माइट्ठी जहाणपत्तं मुणेयव्यं ॥२२२॥ वयतवसीलसमग्गो सम्मत्तविवज्जिो कूपरांतु। सम्मत्तसीलवयवजिओ अपत्त हवे जीवो ॥२२३॥ वसु. था. अर्थ-उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार के पात्र जानने चाहिये। उनमें व्रत, नियम और संयम को धारण करनेवाला साधु उत्तमपात्र है ॥२२१॥ ग्यारह प्रतिमास्थानों में स्थित श्रावक मध्यमपात्र कहे गये अविरतसम्यग्दृष्टिजीव को जघन्यपात्र जानना चाहिये ।।२२२॥ जो व्रत, तप और शीलसे सम्पन्न हैं. किन्त सम्यग्दर्शनसे रहित हैं, वे कुपात्र हैं । सम्यक्त्व, शील पोर व्रतसे रहित जीव अपात्र हैं । गुण. श्रावकाचार में भी इसी प्रकार कहा है पानं निधोत्तमं चैतन्मध्यमं च जघन्यकम् । सर्वसंयमसंयुक्तः साधु स्यात्पात्र मुत्तमम् ॥ १४८ ॥ एकादशप्रकारोऽसौ गृहीपात्रमनुत्तमम् । विरत्या रहितं सम्यग्दृष्टिपात्र बघन्यकम् ॥ १४९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy