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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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कृष्ण, नील, कापोत इन अशुभलेश्यारूप परिणामों के रहते हुए मनुष्य को प्रथमोपशमसम्यक्त्व नहीं हो सकता है । कहा भी है
"तिरिक्ख मणुस्सेसु किण्हणील-काउलेस्साणं सम्मत्तुष्पत्तिकाले पडिसेहो कदो, विसोहिकाले असुहतिलेस्सापरिणामस्स संभवाणुववत्तीदो।"
सम्यक्त्व उत्पत्तिकाल में तिरंच व मनुष्यों में कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभलेश्याओं का निषेध किया गया है, क्योंकि विशुद्धि के समय तीन अशुभ लेश्यारूप परिणाम संभव नहीं हैं।
जब सम्यक्त्वोत्पत्ति के समय तीन अशुभलेश्यारूप परिणाम सम्भव नहीं हैं तो सप्तव्यसन का सेवन तो सम्भव हो नहीं सकता, क्योंकि सप्तव्यसन सेवन के समय परिणामों में विशुद्धता प्रा ही नहीं सकती। शिकार पादि के समय तो अत्यन्त क्रूर परिणाम होते हैं ।
टान्त देकर जनता को भ्रम में डालना भी ठीक नहीं है। जिस समय अंजन चोर को सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ उस समय अंजन चोर सप्तव्यसन का सेवन नहीं कर रहा था, किन्तु उसको सप्तव्यसन से ग्लानि हो चुकी थी। सम्यक्त्व और सप्तव्यसन का सेवन एक साथ सम्भव नहीं है, क्योंकि सप्तव्यसन सम्यग्दर्शन के घातक हैं।
मननदृष्टिचरित्रतपोगणं, दहति वन्हिरिबंधनमूजितं । . यविहमद्यमपाकृतमुत्तमैनं परमस्ति ततो दुरितं महत् ।।५१४॥
जिसप्रकार अग्नि इंधन के ढेर के ढेर को जला डालती है, उसी प्रकार जो पिया गया मद्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूपी गुणों को बात की बात में भस्म कर डालता है।
धर्मद्र मस्यास्तमलस्य मूलं, निर्मूलमुन्मूलितमंगभाजां ।
शिवादिकल्याणफलप्रदस्य, मांसाशिनास्यान्न कथं नरेण ॥५४७॥ जो मांस भोजी हैं, पेट के वास्ते जीवों के प्राण लेते हैं वे लोग मोक्ष, स्वर्ग आदि के सुखों को देने वाले निर्दोष धर्मरूपी वृक्ष की जड़ ( सम्यक्त्व ) को उखाड़नेवाले हैं।
दृष्टिचरित्रतपोगुणविद्याशीलदया दम शौचशमाद्यान् । कामशिखी दहति क्षणतो नुर्वहिरिबंधनमूजितमत्र ॥५९१॥
जिसप्रकार प्रज्वलित अग्नि इंधन के समस्त समूह को जला डालती है उसी प्रकार परस्त्रीसेवन ( काम ) रूपी अग्नि पुरुषों के दर्शन, चारित्र, तप, विद्या, शील, दया, दम, शौच, शम आदि समस्त गुणों के समूह को क्षण भर में जलाकर भस्म कर डालती है।
पशुवधपरयोषिन्मद्यमांसादिसेवा वितरति यदि धर्म सर्वकल्याणमूलं निगदव मतिमंतो जायते केन पुसां विविधजनितदुःखा श्वभ्रभूनिंदनीया ॥६९४॥
पशुओं के बध ( शिकार ), मांसभक्षण, परस्त्रीसेवन, मद्य के पान आदि असत्कार्यों को करने पर ( व्यसनसेवन से ) यदि धर्म ( धर्म का मूल सम्यग्दर्शन ) होता है, उससे सांसारिक पारमार्थिक समस्त कल्याणों की प्राप्ति होती है तो फिर निंदनीय नाना दुःखों से परिपूर्ण नरक और तिर्यंच भव किन कारणों से होंगे?
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