________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
। ६३७
समाधान-'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन' इस नीति के अनुसार भोजन का आत्मपरिणामों पर प्रभाव पड़ता है। यद्यपि भोजन जड़ पदार्थ है और आत्मा चैतन्यद्रव्य है फिर भी पाहार का प्रभाव आत्मपरिणामों पर पड़ता हुआ साक्षात् देखा जाता है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है
'मद्य मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् ।' पु० सि० ६२ अर्थात्-मदिरा (शराब) मन को मोहित करती है और मोहितचित्त मनुष्य धर्म को भूल जाता है । 'मधु मद्य नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः ।' पु० सि० ७१
अर्थात्-शहद, मदिरा, मक्खन और मांस महाविकार को धारण किये हुए हैं (इनको खाने वाला विकारी हो जाता है)।
इसप्रकार मद्य, मांस, मधु को विकार का उत्पन्न करनेवाला बतलाकर, गाथा ७२ ब ७३ में पांच उदम्बर फलों का निषेध करके श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं कि जिस मनुष्य के इन पाठों का त्याग नहीं है वह जिनधर्मोपदेश का भी पात्र नहीं है।
अष्टावनिष्टस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवज्यं ।
जिन-धर्मवेशनाया भबन्ति पात्राणि शदधियः ॥७४॥ पृ० सि० अर्थातू-मद्य, मांस, मधु और पांच उदम्बरफल के आठों दुःखदायक दुस्तर और पापों के स्थान हैं। इन आठों का परित्याग करके निर्मल बुद्धिबाले जीव जिन-धर्म के उपदेश के पात्र होते हैं ।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि मांसभक्षण करनेवाला मनुष्य जिनधर्म के उपदेश का भी पात्र नहीं है तो उसके सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता, क्योंकि मांसभक्षण करनेवाले मनुष्य की बुद्धि मलिन रहती है।
खदिरसार भील को मुनि महाराज ने, आत्मा के स्वरूप का या भेदविज्ञान का उपदेश न देकर, मांसत्याग का उपदेश दिया था, क्योंकि मास के त्याग बिना उस भील में जिनधर्मोपदेश ग्रहण करने की पात्रता नहीं पाती। पात्र के योग्य ही उपदेश देना चाहिये । सम्यग्दर्शन की योग्यता के लिये मद्य, मांस, मधू और पांच-उदम्बर फल के त्यागरूप व्रत तो अवश्य होना चाहिये। जिसके इतना भी ब्रत नहीं है वह सम्यग्दर्शन का पात्र भी नहीं है। सम्यग्दर्शन के पश्चात ही व्रत ग्रहण करना चाहिये, ऐसा एकान्त नहीं है। सम्यग्दर्शन की पात्रता के लिये सम्यग्दर्शन से पूर्व भी व्रत ग्रहण किये जाते हैं।
उपशमसम्यग्दर्शन से पूर्व क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पांच लब्धियाँ होती हैं । इनमें से पांचवीं करणलब्धि उसी भव्य जीव के होगी जिसका झुकाव सम्यक्त्व और चारित्र की ओर है। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती ने लब्धिसार में कहा भी है
"करणं सम्मत्त-चारिते।" अर्थात्-सम्यक्त्व और चारित्र की तरफ झुके हुए भव्यजीव के ही करणलब्धि होती है।
इससे भी ज्ञात होता है सम्यग्दर्शन के लिये सम्यक्त्व की तरफ तो झुकाव होना ही चाहिए किन्तु उसके साथ-साथ चरित्र की तरफ भी झकाव होना चाहिए। अर्थात् मद्य, मांस, मधु और पाँच उदम्बरफल के त्यागरूप व्रत तो होने हा चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org