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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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कहा है । इन सब कथनों में तथा इसप्रकार के अन्य कथनों में शुभोपयोग के राग अंश की मुख्यता रही है और सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रअंश की गौणता रही है। ऐसा कथन होते हुए भी सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र के द्वारा होने वाली निर्जरा व संवर का सर्वथा अभाव न समझ लेना चाहिये, किन्तु राग अंश के द्वारा पुण्यबंध होने पर भी वीतराग अंश ( सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र ) के द्वारा शुभोपयाग से संवर और निर्जरा भी अवश्य होती है । यदि यह कहा जावे कि शुभराग को तो शुभोपयोग के नाम से पुकारा जावे तो शुभोपयोग से मात्र बध और शुद्धोपयोग से मात्र संवर व निर्जरा सिद्ध हो जाने से सब कथन श्रागम अनुकूल हो जाता है, किंतु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रवचनसार गाथा ९ में एक काल में एक जीव के एक उपयोग स्वीकार किया गया है। एक साथ एक जीव के एक से अधिक उपयोग नहीं माने गये हैं ।
इस सब कथन का सारांश यह है कि मात्र शुभराग तो निरतिशय मिथ्यादृष्टि के होता है जिससे पुण्यबंध होता है और संवर- निर्जरा नहीं होती । उपशमसम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के तथा सम्यग्दृष्टि के वीतराग मिश्रित शुभराग होता है, जिसको शुभोपयोग कहते हैं यह शुभोपयोग द्रव्यानुयोग की अपेक्षा चौथे गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक होता है और करणानुयोग की अपेक्षा चौथे से दसवें गुणस्थान तक होता है ( मोक्षमार्गप्रकाशक ) इस शुभोपयोग के द्वारा बंध कम होता है और निर्जरा अधिक होती है। जैसा कि कहा भी है- प्ररहंत नमस्कार से तात्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा होती । जयधवल पु० १ पृ० ९ ।
- जै. सं. 6-5-58 / IV / त्रिवप्रसाद
अष्ट मूलगुरण
१. सर्व प्रथम करणीय ( पालनीय ) क्रिया
२. मांस श्रादि भक्षण करने वाला सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकता
शंका - जीव को सबं प्रथम क्या करना चाहिये ?
समाधान - मनुष्य को सर्व प्रथम मद्य, मांस, मधु और पांच उदम्बरफलों का त्याग करना चाहिये, क्योंकि इनके त्याग किये बिना मनुष्य जैनधर्म के उपदेश का पात्र भी नहीं होता है। श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने पुरुषार्थसिद्धि उपाय में कहा भी है
अष्टाव निष्टबुस्तर दुरितायत नान्यमूनि परिवर्ज्यं । जिन धर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्ध धियः ॥ ७४ ॥
अर्थ- दुखदायक, दुस्तर और पापों के स्थान इन आठ पदार्थों को ( मद्य, मांस, मधु और पाँच उदम्बर फल को ) परित्याग करके निर्मल बुद्धिवाला पुरुष जिनधर्म के उपदेश का पात्र होता है ।
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प्रथमोपशमसम्यक्त्व से पूर्व पाँचलब्धियाँ होती हैं उनमें दूसरी विशुद्धलब्धि है अर्थात् मनुष्य के परिणामों में विशुद्धता-निर्मलता आने पर ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति सम्भव है । मद्य, मांस आदि पदार्थों का भक्षण करनेवाले मनुष्य के परिणामों में विशुद्धता नहीं आ सकती है, क्योंकि क्रूर परिणामवाला मनुष्य ही मद्य, मांसादि पदार्थों का भक्षण कर सकता है । विशुद्ध परिणामवाला मद्य, मांसादि पदार्थों का सेवन नहीं कर सकता है । अतः मद्य,
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