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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
"धर्मधर्मिणोः स्वभावतोऽभेदेपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः परमार्थतस्त्वेकद्रव्यनिष्पतानंत पर्यायतयैकं किचिन्मिलित स्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रं ज्ञायक एवैकः शुद्धः ।" समयसार गाथा ७ की टीका ।
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धर्म और धर्मीका यद्यपि स्वभाव से अभेद है तो भी नाम से भेद होने के कारण व्यवहार मात्रकर आत्मा के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है । परमार्थ से देखा जाय तो द्रव्य अनन्तगुणों का पिंड होने पर भी एक है, उस एक भेद-स्वभाव की दृष्टि में दर्शन भी नहीं है, ज्ञान भी नहीं हैं और चारित्र भी नहीं है ।
इस दृष्टि से सिद्धद्रव्य के ग्रहण होनेपर उसमें पृथकरूप से ज्ञान, दर्शन, चारित्र का ग्रहण नहीं होता है ।
इसप्रकार स्याद्वादियों के लिये सिद्धों में चारित्रगुण का सद्भाव व असद्भाव इन दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है, किन्तु सर्वथा एकान्तवादियों के उक्त दोनों कथन मिथ्या हैं क्योंकि उनका कथन नय निरपेक्ष है ।
यथाख्यात चारित्र क्षायिकरूप ही हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि ग्यारहवें उपशांत मोहगुणस्थान में यथाख्यात चारित्र उपशमरूप भी पाया जाता है । दूसरे यथाख्यात चारित्र साधनरूप है इसलिये सिद्धों में यथाख्यातचारित्र नहीं है | चारित्र की साघनरूप पर्याय नष्ट होने पर ही साध्यरूप पर्याय का उत्पाद होता है ।
अरहंतों का आत्मद्रश्य सलेप है और सिद्धों का आत्मद्रव्य निर्लेप है । श्री अमृतचन्द्राचार्य के 'द्रव्यानुसारि चरणं' इस पद के द्वारा यह कहा गया कि चारित्र द्रव्यानुसार होता है । अतः द्रव्य में अन्तर होने से चारित्र में भी अन्तर होना सम्भव है ।
- ज. ग. 20-5-71 / VII / र. ला. जैन, एम. कॉम. मेरठ क्षायिकचारित्र व यथाख्यातचारित्र में अन्तर
शंका- क्षायिकचारित्र और ययाख्यातचारित्र में क्या अन्तर है ?
समाधान - क्षायिक चारित्र तो चारित्रमोहनीय कर्म के अत्यन्त क्षयसे उत्पन्न होता है, किन्तु उपशांतमोहगुणस्थान में चारित्रमोहनीयकर्म के उपशम से भी यथाख्यातचारित्र होता है । ग्यारहवेंगुणस्थान में यथाख्यातचारित्र तो होता है, किन्तु क्षायिकचारित्र नहीं हो सकता है । यथाख्यातचारित्र उपशम व क्षायिक दोरूप हैं, किन्तु क्षायिक चारित्र मात्र क्षायिक रूप ही है ।
" षोडशकषायनवनोकषायक्षयात् क्षायिकचारित्रम् । सर्वस्य मोहनीयस्योपशमः क्षयो वा वर्तते यस्मिन् तत् परमोदासीन्यलक्षणं जीवस्वभावदशा यथाख्यात चारित्रम् ।" तत्त्वार्थवृत्ति
अप्रत्याख्यानावरणादि सोलहकषाय और हास्यादि नव नोकषाय के क्षय से क्षायिकचारित्र होता है । जिसमें सम्पूर्ण मोहनीयकर्म का उपशम या क्षय हो वह यथाख्यातचारित्र है ।
यथाख्यातचारित्र का स्वामी उपशमसम्यग्दष्टि भी हो सकता है, किन्तु क्षायिकचारित्र का स्वामी क्षायिकसम्यग्दष्टि ही होगा ।
इसप्रकार क्षायिकचारित्र व यथाख्यातचारित्र में प्रस्तर है । वीतरागता की अपेक्षा इन दोनों चारित्र में कोई अन्तर नहीं है । क्षीणमोह - बारहवें गुणस्थान में जो क्षायिकचारित्र है वही यथाख्यातचारित्र है ।
- जै. ग. 3-12-70/X/ रो. ला. मित्तल
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