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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
अर्थ-चारित्र मोक्षप्राप्ति का साक्षात् कारण है यह दिखलाने के लिये पृथक्रूप से उसका ( चारित्र का ) अन्त में ग्रहण किया है।
इससे भी स्पष्ट है कि यथाख्यात चारित्र भी साधनरूप है; साध्य रूप नहीं है, क्योंकि सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात यह पाँच प्रकार जो चारित्र है, वह साधन रूप चारित्र है। साध्यरूपचारित्र अर्थात् सिद्धों का चारित्र इन पांचों नामों द्वारा व्यपदेश को प्राप्त नहीं हो सकता है, इसलिये सिद्धों में सामायिक आदि पाँच नामों से व्यपदेश होनेवाले साधनरूप चारित्र का अभाव कहा गया है।
"सिद्धानां कः संयमो भवतीति चेन्न-कोपि । यथा बुद्धिपूर्वकनिवृत्तेरभावान्न संयतास्तत एव न संयतासंयताः नाप्यसंयताः प्रणष्टाशेषपापक्रियत्वात् ।" धवल पु० १ पृ० ३७८ ।
साधन रूप सामायि कादि पाँच संयमों में संयमासंयम में तथा असंयम में गुणस्थानों का कथन करके यह प्रश्न किया गया कि संयममार्गणा के इन सात भेदों में से सिद्धों में कौन-सा भेद संभव है? इसके उत्तर में श्री वीरसेन महानाचार्य धवल सिद्धान्त ग्रंथ में कहते हैं-"सिद्धों के एक भी संयम नहीं होता है। सिद्धों के बुद्धिपूर्वक निवृत्ति का अभाव होने से जिसलिये वे संयत नहीं हैं उसीलिये वे संयतासंयत नहीं हैं ।" इस पर यह शंका हो सकती थी जब सिद्ध संयत भी नहीं हैं, संयतासंयत भी नहीं हैं तो परिशेष न्याय से सिद्ध असंयत हैं। इसका निराकरण करने के लिये आचार्य कहते हैं कि "सिद्ध असंयत भी नहीं हैं, क्योंकि सिद्धों के सम्पूर्ण पापरूप क्रिया नष्ट हो चुकी है।"
यदि सिद्धों में चारित्र का सर्वथा अभाव माना जाय तो सिद्ध के अचारित्र अर्थात् असंयतपने का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि चारित्र न होना ही तो असंयम है।
"असंयताः आधषु चतुर्यु गुणस्थानेषु । (सर्वार्थसिद्धि १/८) चारित्तं णस्थि जदो अविरद अंतेसु ठाणेसु।"
-गो. जी. गा. १२ आदि के चार गुणस्थानवाले असंयत हैं, क्योकि इन चार गुणस्थानों में चारित्र नहीं होता है।
सिद्ध असंयत नहीं, क्योंकि उनमें चारित्र का अभाव नहीं है। सामायिक प्रादि नामों से व्यपदेश किये जानेवाले साधनरूप चारित्र का अभाव होनेपर भी साध्यरूप चारित्र का सद्भाव सिद्धों में पाया जाता है। यदि सिद्धों में साध्य व साधनरूप दोनों चारित्रों का अभाव माना जायेगा तो सिद्ध भी असंयत हो जायेंगे, जिसप्रकार प्रथम चार गुणस्थान वाले असंयत हैं, क्योंकि उनमें साध्य व साधन दोनों प्रकार के चारित्र का अभाव पाया जाता है।
इसीप्रकार धवल पु०७ पृ० २१, गो. जी. गाथा ७३२ तथा श्लोक वार्तिक १/१/३४ की टीका के विषय में जानना । यदि धबलाकार श्री वीरसेनाचार्य, गोम्मटसार के कर्ता श्री नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, श्लोकवार्तिक के कर्ता श्री विद्यानन्दि आचार्य को सिद्धों में चारित्र का सर्वथा अभाव इष्ट होता तो वे सिद्धों में चारित्र के सद्भाव का कथन न करते । इन प्राचार्यों ने सिद्धों में चारित्र के सद्भाव का कथन किया है जो इस प्रकार है"एदस्स कम्मस्स खएण सिद्धाणामेसो गुणो समुप्पणो ति जाणावणटुमेदाओ गाहाओ एत्थ परूविज्जति"- .
मिच्छत्त-कसायासंजमेहि जस्सोदएण परिणमइ । जीवो तस्सेव खया, तविवरीदे गुणे लहई ॥
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