________________
भ्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ६२१
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीयकर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन व दर्शनमोहनीय के क्षय से उत्पन्न होनेवाला क्षायिकसम्यक्त्व सिद्धों में पाये जाते हैं उसीप्रकार चारित्रमोहनीय के क्षय से उत्पन्न होनेवाला क्षायिक चारित्र भी सिद्धों में पाया जाता है। चारित्र के दो भेद हैं-सकलचारित्र व देशचारित्र । सकलचारित्र को 'महाव्रत' अथवा संयम भी कहते हैं। चारित्र ( व्रत ) का सिद्धों में अभाव नहीं है, किन्तु क्षायिंकचारित्र का सद्भाव है। उक्त समाधान में सर्व कथन 'व्रत' को निवृत्तिदृष्टि से ग्रहण करके किया गया है।)
-जै. ग. 29-5-58/V/ त्रिवप्रसाद अव्यपदेश्य चारित्र, सिद्धों में चारित्र के सद्भाव की सप्रपञ्च सिद्धि
शंका-व्यपदिश्यमान सामायिकादि चारित्रोंमें ययाख्यातचारित्र चौदहवें गुणस्थान के पश्चात कुछ बदल जाता है क्या ? यदि नहीं तो सिद्धों में भी यथाख्यातचारित्र नाम देने में क्या आपत्ति है ? यदि हाँ, तो वह भी क्षायिक भाव होने से उसका नाश नहीं होना चाहिए? यदि सिद्धों में सामायिकादि पाँचों चारित्रों का अभाव माना जाय तो वह कौन-सा चारित्र है जिसका सद्भाव सिद्धों में माना जाय?
समाधान-साधन और साध्य के भेद से चारित्र दो प्रकार का है। जब तक द्रव्यमोक्ष नहीं होता तब तक साधनरूप चारित्र रहता है और द्रव्यमोक्ष हो जाने पर साध्यरूप चारित्र हो जाता है। चारित्र के जो सामायिक आदि पांच भेद किये हैं वे सब साधन रूप चारित्र के हैं। साध्यरूप चारित्र तो एक ही प्रकार का है, उसमें कोई भेद नहीं है। साधनरूप चारित्र कर्मनिर्जरा का कारण है, किन्तु साध्यरूप चारित्र कर्मनिर्जरा का कारण नहीं है।
केवलज्ञानादिरूप भावमोक्ष हो जानेपर भी द्रव्यमोक्ष अर्थात् शेष चार अघातियाकर्मों की निर्जरा के लिये शुक्लध्यानरूप साधनचारित्र केवलीभगवान के तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानों में बतलाया गया है। पंचास्तिकाय गाथा १५३ को टोका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है
"अथ खलु भगवतः केवलिनो भावमोक्षे सति प्रसिद्धपरमसंवरस्योत्तरकर्मसन्तती निरुद्धायां परमनिर्जरा कारण-ध्यानप्रसिद्धौ सत्यां पूर्वकर्म-संततौ कदाचित्स्वभावेनैव कदाचित्समुद्घातविधानेनायुःकर्मसमभूतस्थित्यामायु:कर्मानुसारेण व निर्जीयमाणायामपुनर्भवाय तद्भवत्यागसमये वेदनीयायुर्नामगोत्ररूपाणां जीवेन सहात्यन्त विश्लेषः कर्मपुदगलानां द्रव्यमोक्षः।"
वास्तव में केवलीभगवान को, भावमोक्ष होनेपर, परमसंवर सिद्ध होने के कारण उत्तरकर्मसंतति निरोध को प्राप्त होकर और परमनिर्जरा के कारणभूत ऐसे ध्यान ( तृतीय व चतुर्थ शुक्लध्यान ) की सिद्धि होने के कारण पूर्वकर्मसंतति निर्जरित होती हुई अर्थात् तीसरे व चतुर्थ शुक्लध्यान के द्वारा पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होने पर सिद्धगति के लिये भव ( संसार ) छूटने के समय जो वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार-अघातियाकर्मपदगलों का जो जीव से अत्यन्त वियोग होता है वह द्रव्य मोक्ष है। कभी केवलीसमुद्घात के द्वारा कभी स्वभाव से अपवर्तनाघात द्वारा ) वेदनीय, नाम व गोत्रकर्मों की स्थिति का घात होकर आयुकर्म की स्थिति के समान हो जाती है।
"परे केवलिनः ॥ त० सू० ९/३८ ॥" इस सूत्र द्वारा यह बतलाया गया है कि सयोगकेवली के सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान होता है और अयोगकेवली के व्युपरतक्रियानिवृत्ति चौथा शुक्लध्यान होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org