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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार।
उस्सपिणीयपढमे पुक्खरखीरधवमिदरसा मेघा। सत्ताहं बरसंति य जग्गा मत्तादिआहारा ॥८६॥ उण्हं छंडदि भूमी छवि सणिद्धत्तमोसहि धरदि। वल्लिलदागुम्मतरू वड्ड दि जलादिवरसेहिं ॥८६९।। णवितीरगुहादिठिया भूसीयलगंधगुणसमाहूया ।
णिग्गमिय तदो जीवा सवे भूमि भरंति कमे ॥८७०॥ त्रिलोकसार मुनि, पार्यिका, श्रावक और श्राविका ये चारों पंचमकाल के एक पक्ष आठ मास तीन वर्ष अवशेष रहे, तीन कल्की राजा करि मनि का प्रथम ग्रास ग्रहण करते संते तीन दिन पर्यंत संन्यास मरण मास की अमावस्या तिथि को मरकर सौधर्म स्वर्ग में एक सागर की आयु वाला देव होगा और शेष ३ पल्य की आय वाले सौधर्म देव होंगे। उस दिन क्रमशः धर्म, राजा और अग्नि का नाश होय है। पुद्गल द्रव्य अति रूखा भाव रूप परणया तातै अग्नि का नाश भया । मुनि आदि के नाश ते धर्म के आश्रय का अभाव भया तातै धर्म का माश भया । असुरकुमार के इन्द्र ने राजा को मारचा तातै राजा का नाश भया। ऐसे नाश होते पीछे समस्त लोक आंधा हो है। छठा काल का अंत विर्ष संवर्तक नामा पवन सो पर्वत, वृक्ष, पृथ्वी आदि का चूर्ण करें हैं। तिस पवन कर जीव मूर्छा को प्राप्त होय हैं, मरे हैं। छठा काल का अंत विष पवन (१) अत्यन्त शीत (२) क्षार रस (३) विष (४) कठोर अग्नि (५) धूलि (६) धुवा (७) इन सात रूप परिणए पुद्गल की वर्षा ४६ दिन विष हो है। विजयाद्ध पर्वत, गंगा सिंधु नदी, इनका वेदी और तिनके बिल आदि विष तिनही के निकटवर्ती प्राणी स्वयमेव प्रवेश करे हैं । दयावान विद्याधर व देव मनुस-युगल आदि बहुत जीवों को तिस बाधा रहित स्थान को ले जाते हैं। अवशेष मनुष्यादि सब नष्ट होय है। विष और अग्नि की वर्षा करि दग्ध भई पृथिवी एक योजन नीचे तक चूर्ण होय है।
__ उत्सर्पिणी का अतिदुःषम प्रथम काल के आदि में जल, दुग्ध, घी, अमृत, रस, औषध भोर शीतल गन्ध युक्त पवन ये सात वर्षा सात सात दिन तक होती हैं । मनुष्य और तियंच गुफाओं से बाहर निकल पाते हैं।
इसी प्रकार ति. प. अधिकार ४।१५३० से १५६६ तक सविस्तार कथन है। लोक विभाग अधिकार ५ में भी इसी प्रकार कथन है। प्रतः प्रलय के समय न धर्म रहता है और न धर्मात्मा रहते हैं।
-जें. ग. 23-3-72/IX/. सरदारमल पणेन सच्चिदानन्द धर्म रहित म्लेच्छों में चतुर्थकाल से अभिप्राय शंका-म्लेच्छ खंड में चतुर्थकाल कैसे सम्भव है ? क्योंकि वहाँ पर धर्म की प्रवृत्ति का अभाव है।
समाधान-म्लेच्छ खंडों में शरीर की अवगाहना तथा आयु चतुर्थ काल जैसी रहती है, इसलिये म्लेच्छ खंडों में सदैव चतुर्थ काल रहता है, ऐसा कहा गया है।
-जं. ग. 9-4-70/VI रोशनलाल प्राज भी विद्याधरों को मोक्ष शंका-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-द्वितीय उद्देश गाथा ११६ में लिखा है कि विद्याधरों के नगरों में एक चौथा काल ही रहता है । त्रिलोकसार गाथा ८८३ में लिखा है कि विद्याधरों की श्रेणी में चतुर्थकाल के आदि-अन्तवत
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