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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
शंकाओं का समाधान यद्यपि वे तुरन्त कर सकते थे तदपि वात्सल्यवश उन्हें मुझे अपने पास दो-तीन दिन ठहराना इष्ट था। इधर मैं भी उनकी सङ्गति से लाभान्वित होना चाहता था। फलत: दो-तीन दिन के लिए बड़तला मन्दिर में ठहर गया। वहीं बाबू ऋषभदासजी से भी भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। शंकाओं का समाधान तो बाबूजी ने कर ही दिया और मेरी रुचि के अनुसार ही किया परन्तु इससे भी अधिक महत्त्व की बात तो यह
पना बच्चा समझकर उन्होंने अत्यन्त सहानभतिपूर्वक मुझे त्यागमार्ग पर चलने के लिये जीवनोपयोगी कुछ ऐसी मार्मिक बातें सुझाई, जिनसे मैं सर्वथा अनभिज्ञ था और जिन्हें जाने बिना मेरे लिए अवश्य ही व्यवहार पथ पर भटक जाने का भय था। उनसे प्राप्त इस अहैतुकी स्नेह तथा अनुग्रह को मैं कभी नहीं भूल सकता।
बाबजी के इस द्विदिवसीय सान्निध्य से मैं इतना अवश्य समझ गया था कि साधनापथ पर चलने के लिए केवल शास्त्रज्ञान पर्याप्त नहीं है। व्यवहार से अनभिज्ञ रहते हए दिग्भ्रान्त की भांति इस मार्ग पर चलना सम्भव नहीं।
अपना धर्म पिता स्वीकार कर लेने के कारण अब मेरे हृदय में बाबूजी के प्रति कोई झिझक शेष नहीं रह गई थी इसलिए उनके द्वारा उत्साहित तथा प्रेरित किया गया मैं कुछ ही दिनों बाद वर्णीजी के दर्शनार्थ ईसरी पहुँचा। एक बच्चा अपने पिता को छोड़कर अन्यत्र कैसे रह सकता था और फिर उन दिनों में तो माताजी भी बाबूजी के साथ वहीं गई हुई थीं। उनके मधुर वात्सल्य ने मुझे उनके पास ही ठहरने के लिए विवश कर दिया था। वहाँ मैं उनके पास लगभग तीन माह तक ठहरा । अनन्तर, स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण लौट आना पड़ा। उनके साथ माताजी का वह प्रेम अाज तक मेरे हृदय में घर किये हुए है।
तीसरी बार, परमपूज्य आचार्य शिवसागरजी महाराज के दर्शनार्थ अजमेर जाने पर मुझे उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ और इस प्रकार धीरे-धीरे घनिष्ठता बढ़ती गई। साथ-साथ सैद्धान्तिक शंकाओं का समाधान प्रस्तुत करने की बाबूजी की समतापूर्ण पद्धति भी मेरे हृदय में घर कर गई। कहीं भी किसी प्रकार का निजी पक्ष न रख कर उभयनय सापेक्ष प्रस्तुत करना बाबूजी की विशेषता थी। पागम का उल्लंघन करके अपनी इच्छा से हानिवृद्धि करने में उनकी जिह्वा सदा डरती रहती थी। शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान् होते हुए भी समाधान देते समय अपने हृदय में अहंकार का प्रवेश न होने देना एक बड़ी बात है जिसने मेरा मन मोह लिया।
। उनकी इस समतापूर्ण विद्वत्ता तथा विद्वत्तापूर्ण समता को देखकर मेरे भीतर एक भाव जाग्रत हुआ कि बाबूजी को सोनगढ़ ले जाकर यदि कदाचित् स्वामीजी के साथ मैत्रीपूर्ण चर्चा करने का अवसर दिया जाए तो स्वामीजी तथा पण्डितवर्ग के मनों में एक दूसरे के प्रति दिनोंदिन जो भ्रान्त धारणाएँ घर करती जा रही हैं और जिनके कारण एक अखण्ड दिगम्बर सम्प्रदाय दो भागों में विभाजित हुआ जा रहा है, उनका सहज वारण किया जाना सम्भव हो सकता है। कुछ समय सोनगढ़ में रहकर जैसा मैंने अनुभव किया था उसके आधार पर मुझे विश्वास था कि यह कोई अनहोनी बात नहीं है। अजमेर निवासी श्री हीरालालजी बोहरा के माध्यम से सोनगढ से इस सम्बन्ध में पत्र-व्यवहार किया गया। बाबूजी से स्वीकृति लेकर जाने का प्रोग्राम बना लिया गया परन्तु होना तो वही था जो कि होना नियत था। जिस दिन सोनगढ़ के लिये प्रस्थान करना था उसी दिन सवेरे टेलीग्राम द्वारा सूचना मिली कि सोनगढ़ की समिति बाबूजी का वहाँ आना उचित नहीं समझती।
अनन्तर, समाज के निमन्त्रण पर चातुर्मास के लिए जब मेरा सहारनपुर जाना हुआ तो उन्होंने आग्रह पूर्वक कुछ दिनों के लिये मुझे अपने पास ही ठहराया। शान्तिपथप्रदर्शन ( नवीन संस्करण-शांतिपथप्रदर्शन ) में उल्लिखित नियतवाद को लेकर जो समीक्षापूर्ण लेख पत्रों में प्रकाशित हुए थे, उनका उत्तर देने के लिए जब
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