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[ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ___ कर्मभूमिया मिथ्यादृष्टि मनुष्य मरकर विदेह आदि कर्मभूमि क्षेत्रों का मनुष्य हो सकता है। "अल्पारम्भ परिग्रहत्वं मानुषस्य ॥१७॥" त० सू० के सूत्र द्वारा यह बतलाया गया है कि जिस मिध्याहृष्टि के अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह है वह मनुष्यायु का बंध करता है।
-जे. ग. 23-12-71/VII/ जैनीमल जैन
विदेहक्षेत्र का सम्यग्दृष्टि मर कर यहाँ जन्म नहीं लेता
शंका-क्या सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर मनुष्य नहीं हो सकता? क्या भरत क्षेत्र का सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर विदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो, तीर्थकर केवली या अतकेवलो के पादमूल में क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न कर मोक्ष नहीं जा सकता? श्री कानजी स्वामी विदेह क्षेत्र में सम्यग्दृष्टि मनुष्य थे वे वहां से चयकर भरत क्षेत्र में सम्यग्दृष्टि मनुष्य उत्पन्न हुए । जब विदेह क्षेत्र का सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर भरत क्षेत्र का सम्यग्दृष्टि मनुष्य हो सकता है तो भरत क्षेत्र का सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर विदेह क्षेत्र के सम्यग्दृष्टि मनुष्यों में क्यों नहीं उत्पन्न हो सकता ?
समाधान-सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर देवों में उत्पन्न होता है, यदि वह अन्य गति में उत्पन्न होता है तो उसका सम्यक्त्व छूटकर मिथ्यात्व अवस्था में मरण होता है । षट्खंडागम और उसकी धवल टीका में कहा भी है
"मणुसम्माइट्ठी संखेज्जवासाउआ, मगुस्सा मणुस्सेहि कालगवसमाणा, कवि गदोओ गच्छति ॥१६३॥ एक्कं हि चेव देवदि गच्छति ॥ १६४ ॥
धवल टीका-देवगइ मोत्तणण्ण गईणमाउअंबंधिदूण जेहि सम्मतं पच्छा पडिवण्णं ते एत्थ किण्ण गहिवा? ण तेसि मिच्छत्तं गंतूणप्पणो बंधाउअवसेण उप्पज्जमाणाणं सम्मत्ता भावा । संख्यातवर्षायुष्क ( कर्मभूमिजमनुष्य )
अर्थ-सम्यग्दृष्टि मनुष्य पर्याय से मरण कर कितनी गतियों में जाते हैं । वे मात्र एक देवगति को ही जाते हैं ॥ १६३-१६४ ।।
देवायु के अतिरिक्त अन्य गतियों को बांध-कर जिन मनुष्यों ने पश्चात् सम्यक्त्व ग्रहण किया है उनका यहां ग्रहण क्यों नहीं किया अर्थात् मात्र एक देवगति में ही जाते हैं अन्य गतियों में नहीं जाते ऐसा क्यों कहा? नहीं कहा, क्योंकि पुनः मिथ्यात्व में जाकर अपनी बांधी हुई आयु के वश से उत्पन्न होने वाले उन जीवों के सम्यक्त्व का अभाव पाया जाता है। यदि किसी मनुष्य ने मनुष्यायु का बंध कर लिया उसके पश्चात् सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर लिया है तो वह सम्यक्त्व मरण के अन्तर्मुहूर्त पूर्व छूट जायगा और मिथ्यात्व में जाकर उसका मरण होगा।
-धवल पु०६ "भोगभूमौ निवृत्यपर्याप्तक निर्वृत्यपर्याप्तक-सम्यग्दृष्टो कापोतलेश्या जघन्यांशो भवति । कुतः कर्मभूमिनरतिरश्च प्रारबद्धायुषां क्षायिकसम्यक्त्वे वा वेवकसम्यक्त्वे वा स्वीकृते तवंशजघन्येन तत्रोत्पत्ति संभवात।"
यहाँ यह कहा गया है कि जिस मनुष्य ने मनुष्यायु या तियंचायु का बंध कर लिया है पश्चात् क्षायिक सम्यक्त्व या कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त हो गया वह जीव मरकर भोगभूमिया मनुष्य या तियंचों में ही उत्पन्न होगा और उसके कापोत लेश्या का जघन्य अंश होगा। (गो० जी० ५३१)
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