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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
यदि कोई यह मानकर कि कुदेव आदि लक्ष्मी, पुत्र आदि देकर जीव का उपकार करते हैं, कुदेव आदि को मानने लगे तो ग्रहीत मिथ्यात्व छुड़ाने के लिये स्वामी कार्तिकेय कुदेवादि की पूजा के निषेध के लिये गाथा ३१६ के द्वारा इस प्रकार उपदेश देते हैं
गय कोवि देदि लच्छी, ण कोवि जीवस्स कुणदि उवयारं ।
उवयारं अवयारं कम्मपि सुहासुहं कुणदि ॥ ३१९ ॥ अर्थ-न तो कोई जीव को लक्ष्मी देता है और न कोई उसका उपकार करता है, किन्तु शुभ अशुभ कर्म जीव का उपकार और अपकार करता है।
इस गाथा ३१६ में जो यह सिद्धान्त बतलाया है कि एक जीव दूसरे जीव का उपकार या अपकार नहीं कर सकता है, वह मात्र कुदेवादि की पूजा के निषेध के लिये है, किन्तु इस सिद्धान्त को सर्वथा नहीं मानना चाहिये। श्री स्वामी कार्तिकेय ने स्वयं यह कथन किया है कि एक जीव दूसरे जीव का अपकार या उपकार करता है।
तिरिएहि खज्जमाणो, बुढ-मणुस्सेहि हम्ममाणो वि । सम्वत्थवि संतट्ठो, भय-दुक्खं विसहदे भीमं ॥४१॥ अष्णोण्णं खज्जंता, तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं । माया विजस्थ भक्खदि, अण्णो को तत्थ रक्खेदि ॥४२॥
अर्थ-एक तियंच को अन्य तियंच खा लेते हैं, दुष्ट मनुष्य उसे मार डालते हैं, प्रतः सब जगह से भयभीत हुआ प्राणी भयानक दुःख सहता है । तियंच एक दूसरे को खा जाते हैं, अतः दारुण दुःख पाते हैं । जहाँ माता ही भक्षक हो वहाँ दूसरा कोन रक्षा कर सकता है ?
गाथा ३१७ में 'जीवाण दयावरं धम्म' तथा गाथा ४७८ में 'जीवाणं रक्खणं धम्मो।' इन शब्दों द्वारा यह बतलाया गया है कि जीवों की दया अथवा रक्षा करना उत्कृष्ट धर्म है । जीवों की रक्षा करता ही तो उन जीवों का उपकार है।
श्री सर्वज्ञदेव ने भी उपदेश दिया है कि एक जीव दूसरे जीव का उपकार कर सकता है। उस सर्वज्ञ वाणी के अनुसार-परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥२१॥ ( मो० शा० अ० ५) इस सूत्र की रचना हुई है। अर्थात् परस्पर सहायक होना यह जीवों का उपकार है । इस सूत्र की टीका में श्री श्रुतसागरजी आचार्य ने कहा है
"यथा वापः पुत्रस्य पोषणादिकं करोति, पुत्रस्तु वन्तुरनु-फूलतया देवाचनादिकं कारयन् श्रीखण्डघर्षणाविकं करोति । यद्याचार्यः इहलोक-परलोकसौख्यदायकमुपदेशं दर्शयति तदुपदेशकृतक्रियानुष्ठान कारयति, शिष्यस्तु गुर्वनु. कूल्यवृत्या तत्पादमर्दननमस्कारविधानगुणस्तवनाभीष्टवस्तुसमर्पणादिकमुपकारः करोति । यदि राजा किङ्करेभ्यो धनाविकं वदाति, भत्यास्तु स्वामिने हितं प्रतिपादयन्ति अहितप्रतिषेधं च कुर्वन्ति, स्वामिनं च पृष्ठतः कृत्वा स्वयमग्ने भूत्वा स्वामिशत्रुभङ्गाय युद्ध्यन्ते । यो जीवो यस्य जीवस्य सुखं करोति स जीवस्तं जीवं बहुवारान जीवयति, यो मारयति स तं बहुवारान मारयति ।"
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