________________
५७२ ]
अर्थ- सब द्रव्य तीनों ही काल में अनन्तानन्त हैं। अतः जिनेन्द्र ने सभी को अनेकान्तात्मक कहा है || २२४१ जो वस्तु अनेकान्त रूप है वही नियम से कार्यकारी है, क्योंकि लोक में बहुत धर्मयुक्त अर्थ ही कार्यकारी देखा जाता है ।। २२५ ।।
[ पं० रतनचन्द जैन मुस्तार
1
जो परोक्ष रूप से सर्व को अनेकान्त रूप दर्शाता है और संशय आदि से रहित है उस ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं ॥ २६२ ॥
यद्यपि अर्थ नाना धर्मों से युक्त है तथापि नय एक धर्म को कहता है, क्योंकि उस समय उसी धर्म की विवक्षा है, शेष विवक्षा नहीं है ।। २६४||
त्मक
लोगों के प्रश्नों के वश से तथा व्यवहार को चलाने के लिये सप्त भंगी के द्वारा जो नियम से अनेकान्ताजीव अजीव आस्रवं बंध संवर निर्जरा मोक्ष ) इन सात तत्वों का श्रद्धान करता है तथा जीव अजीव बसव बंध] संवर निर्जरा मोक्ष पुण्य और पाप इन तो पदार्थों को श्रुतज्ञान और नयों के द्वारा आदरपूर्वक मानता है वह शुद्ध सम्यग्दष्टि है ।।३११-३१२॥
इन गाथाओं से स्पष्ट है कि श्री १०८ स्वामी कार्तिकेय को अनेकान्त का सिद्धान्त इष्ट था। इसलिये उन्होंने यह कहा कि जो नियम से, जीव सजीव द्रव्य और आस्रव बंघ संवर निर्जरा मोक्ष पर्याय इन सात तत्वों का श्रुतज्ञान और नयों के द्वारा अनेकान्त रूप से श्रद्धान करता है वह शुद्ध सम्यपष्टि है यहाँ पर एकांत नियतिवाद के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन नहीं कहा है किन्तु श्रुतज्ञान के अंश रूप नियतिनय अनिवतिनय कालनय, अकालनय आदि नयों के द्वारा अनेकान्त रूप से तत्व और अर्थ के श्रद्धान को शुद्ध सम्यग्दर्शन कहा है | गाथा ३१२ में 'सुवणारोण' अर्थात् श्रुतज्ञान शब्द से यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जो भी सर्वज्ञ ने द्रव्य श्रुतरूप कहा है उसके ज्ञान से जो तवों का श्रद्धान होगा वह शुद्ध सम्यग्दर्शन है अर्थात् जो सर्वज्ञ ने कहा है वह सत्य है, इस श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है।
जो ण विजादि तच्च, सो जिणवयर करेवि सद्दहणं । जं जिनवरभणियं तं सम्यमहं सम्ममिच्छामि ॥ ३२४ ॥
अर्थ- जो तत्वों को नहीं जानता किन्तु जिनेन्द्र भगवान के वचनों पर श्रद्धा करता है और जो जिनेन्द्र भगवान ने कहा है उसको मानता है वह सम्यग्दष्टि है।
गाथा ३११-३१२ ओर ३२४ में यह क्यों नहीं कहा कि जो सर्वंश ने देखा है उसकी जो श्रद्धा करता वह सम्यग्दष्टि है ?
Jain Education International
श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने भी समयसार प्रथम गाथा में यह प्रतिज्ञा की है कि केवली ( सर्वज्ञ ) और श्रुतकेवली ( पूर्णं द्रव्यश्रुत के ज्ञाता ) ने जो कहा है वही मैं कहूँगा । यह प्रतिज्ञा क्यों नहीं की कि सर्वज्ञ ने जो देखा है वह मैं कहूंगा ! समयसार की प्रथम गाथा इस प्रकार है
वित्तु सम्यसिद्ध ध्रुवमचलमणोवमं गई पसे । बच्छामि समयपाहुड, मिणमो सुयकेवली भणियं ॥१॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org