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ध्यक्तित्व और कृतित्व ]
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यहाँ पर 'व्यवस्थितेः' और 'उपपत्तेः' ये दोनों शब्द ध्यान देने योग्य हैं। कालमरण में मरण काल व्यवस्थित ( निश्चित ) है किन्तु अकालमरण में बाह्य विशेष कारणों से मरणकाल उत्पन्न होता है । अन्यथा अकालमरण ( अपमृत्यु ) के अभाव का प्रसंग आ जायगा। यदि ऐसे अकालमरण का प्रभाव माना जावे तो आयुर्वेद की प्रमाणभूत चिकित्सा तथा शल्य आदि ( ऑपरेशन आदि ) की सामर्थ्य का उपयोग कैसे होगा? क्योंकि उस चिकिरसा की सामर्थ्य का उपयोग तो अकालमरण के प्रतिकार में होता है । 'तवभावे पुनरायुर्वेदप्रामाण्यचिकित्सितादीनां च क्व सामोपयोगः।।
जब अकालमरण का प्रतिकार भी हो सकता है तो इससे भी सिद्ध है कि अकालमरण का काल व्यवस्थित नहीं है।
कुछ एकान्तविमूढ़ अकालमरण के मानने पर यह अापत्ति उठाते हैं कि यदि अकालमरण माना जावेगा तो अकालजन्म भी मानना होगा और अकालजन्म के मानने पर करणानुयोग की यह व्यवस्था कि मरण से अधिक से अधिक तीन समय पश्चात् जीव जन्म ले लेता है, गड़बड़ा जाएगी। इस प्रकार की आपत्ति उठाने में दो ही कारण हो सकते हैं। या तो उन्होंने करणानुयोग के रहस्य को समझा ही नहीं या उनको किसी प्रकार का लालच है। इसलिये वे सर्वज्ञ वाक्यों पर आपत्ति उठाते हैं।
अकालमरण का उपयुक्त वर्णन स्वयं सर्वज्ञदेव ने किया है। जिनको सर्वज्ञ-वाक्यों पर श्रद्धा नहीं है वे सम्यग्दृष्टि भी नहीं हैं।
'विषशस्त्रवेदनादिवाानिमित्तविशेषेणापवय॑ते ह्रस्वीक्रियत इत्यपवयं अपवर्तनायमित्यर्थः ।
( सुखबोध तत्त्वार्थवृत्ति पृ० ४५ ) अर्थात्-विषभक्षण, शस्त्रप्रहार, वेदना आदि विशेष बाह्य कारणों से जिनकी आयु का ह्रास ( कम ) हो सकता हो उनकी प्रायु अपवर्तनीय है।
भावपाहुड़ में भी श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा है कि विषभक्षण से, वेदना की पीड़ा से, रक्तक्षय से, भय से, शस्त्र घात से, संक्लेश परिणाम से, आहार तथा श्वास के निरोध से, इन कारणों से वायु का क्षय अर्थात् प्रायु कम होती है।
भुज्यमान आयु की स्थिति के ह्रास होने को अकाल-मरण या अपमृत्यु कहते हैं। भुज्यमान प्रायुस्थिति के ह्रास हो जाने के पश्चात् और मरण से अन्तर्मुहूर्त ( असंक्षेपाद्वा ) काल से पूर्व परभव आयु का बन्ध होने पर ही मरण होता है । परभव की आयु का बन्ध हुए बिना किसी भी जीव का मरण नहीं होता । कालमरण वाले भी जिनके पूर्व में आयु का बन्ध नहीं हुमा, वे भी मरण से अन्तर्मुहूर्त काल ( प्रसंक्षेपाद्वा ) पूर्व ही परभव प्रायु का बन्ध करते हैं । आयु का जघन्य आबाधाकाल अन्तमुहूर्त काल अर्थात् प्रसंक्षेपाद्वा होता है (धवल पु० ६ पृ. १९३-१९४)। अतः अकाल जन्म का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि अकाल जन्म का प्रश्न तो तब उठ सकता है जब परभव की आयु बंध के बिना मरण हो जावे या आबाधाकाल से पूर्व मरण हो जावे, किन्तु दोनों बातें संभव नहीं हैं ( धवल पु० १०) प्रायु कर्म का जघन्य आबाधाकाल असंक्षेपाद्वा है अर्थात् अबाधाकाल इतना जघन्य है कि जिसका संक्षेप अर्थात् ह्रास नहीं हो सकता है।
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