________________
१६ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अन्तर्ध्वनि * पूज्य १०५ आयिका श्री विशुद्धमती माताजी
सिद्धान्तभूषण ब्रह्मचारी पण्डित श्री रतनचन्दजी मुख्तार सहारनपुर वाले करणानुयोग रूपी नभमण्डल के प्रदीप्त मार्तण्ड थे। इस भव के अभीक्ष्णज्ञानोपयोग और पूर्व भव के संस्कारों वश आपने सिद्धान्तग्रन्थों के अभ्यन्तर रहस्य को समझने की जो कुञ्जी प्राप्त की थी, वह अन्यत्र दुर्लभ है। आप प्रायः प्रतिवर्ष संघ में आकर दो-दो माह तक रहते और ज्ञानपिपासु साधु-साध्वियों के स्वाध्याय में परम सहायक बनते थे।
ग्रन्थराज षटखण्डागम का मेरा स्वाध्याय आपके सान्निध्य में ही हया था। स्वाध्यायकाल में जटिल स्थलों एवं विषयों को सरल सहज स्पष्ट करने हेतु अनेक संदृष्टियाँ तथा उनके विवरण, चार्ट आदि तैयार करने में अथक परिश्रम हुअा। षट्खण्डागम गणितप्रधान अत्यन्त जटिल ग्रन्थ है किन्तु उन जटिल स्थलों को सरल करने की जो कोटियाँ आपने समझाईं, उन्हीं से ग्रन्थ के अपूर्व प्रमेय बुद्धिगत हो सके।
गणित में पीएच० डी० करने वालों को भी सामान्यतः इतना ज्ञान नहीं होता जितना अङ्कगणित, रेखागणित और बीजगणित में आपका था। छोटे-छोटे सूत्रों (फार्मुलों) से आप कठिन से कठिन गणित को हल करने की प्रक्रिया समझाते थे। गणित से अनभिज्ञ व्यक्ति को भी उसमें प्रवेश करा देने का तरीका आपका अद्वितीय था।
एक बार मैंने आपसे पूछा कि आपने धवल-जयधवल के रहस्य को समझने की अपूर्व कुञ्जियाँ किस गुरु से प्राप्त की ? तब आपने कहा कि मैं पहले वकालत करता था। कुछ कारणों से मुझे उससे अरुचि हो गई। मैं उस धन्धे को छोड़कर निश्चिन्ततापूर्वक सरस्वती की आराधना में संलग्न हो गया। मैंने जब सर्व प्रथम ग्रन्थराज धवल का स्वाध्याय किया तब एक-दो प्रावृत्ति में तो मेरे कुछ समझ में ही नहीं आया, फिर भी मैं हताश नहीं हुआ
और ग्रन्थ साथ लेकर एकाकी ही हस्तिनापुर चला गया। मुझे रोटी बनाना नहीं आता था अतः जली-कच्ची, मोटी-पतली जैसी भी रोटियाँ बनती उन्हें एक कटोरे में पानी डालकर गला देता और दिन में मात्र एक बार वह भोजन कर १२-१५ घण्टे तक एकान्त में बैठ कर धवल ग्रन्थों का अध्ययन करता । वहाँ भी एक दो आवृत्ति में तो कोई विशेष रहस्य बुद्धिगत नहीं हुए फिर भी मैं कटिबद्ध रहा। पुनः पुनः स्वाध्याय करते-करते कुछ दिनों में अनायास इसकी कोटियाँ समझ में आ गईं। इसके बाद केवल धवल ही नहीं अपितु जयधवल, महाबन्ध आदि सभी ग्रन्थ सरल हो गये।
__प्रायः नीरोग शरीर, चित्त और प्रासन आदि की स्थिरता, जिह्वादि इन्द्रियों का दमन अर्थात् केवल एक बार भोजन-पान और उत्कट ज्ञानपिपासा आदि अनेक गुणों के अवलम्बन से ही आप जैन सिद्धान्त रूपी रत्नाकर में गोते लगा-लगा कर “जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ" की नीति को चरितार्थ करते हुए अपूर्व-ज्ञान प्राप्त कर सके । आपका जन्म सम्वत् १६५६ में हुआ था। जीवन के अन्तिम वर्षों में भी स्मृति की अपूर्व स्वच्छता तथा विशेष शारीरिक परिश्रम आपके पूर्व पुण्य के द्योतक रहे हैं।
श्रीमन्नेमिचन्द्राचार्य विरचित "त्रिलोकसार" की हिन्दी टीका करने का प्रोत्साहन मुझे सर्वप्रथम आपने ही दिया था। केवल इतना ही नहीं, बल्कि १४० गाथा तक स्वयं स्वाध्याय कराकर उसमें प्रवेश कराने का श्रेय भी आपको ही है। गाथा संख्या १७, १९, २२, २६, ८४, ८६, १०३, ११७, ११६, १६५, २३१, ३२७, ३५६, ३६०, ३६१ और ७८६ आदि की वासनासिद्धि तो आपने ही सिद्ध कराई। कुछ गाथाओं में तो आपको बहत परिश्रम करना पडा । "त्रिलोकसार" की मुद्रित संस्कृत टीकाओं में जो पाठ छूट गये थे अथवा परिवर्तित हो गये थे, उन्हें अापने व्यावर और पूना से हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त होने के पूर्व ही अपनी प्रखर मेधा से संशोधित कर दिये थे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org