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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
तिर्यंच और मनुष्यों के वैक्रियिक शरीर का विधान नहीं किया है, किन्तु उसके सद्भाव मात्र से अन्यत्र उसका विधान कर दिया। (त. रा. वातिक अ० २ सूत्र ४९ वार्तिक ८)। विक्रिया के लिए आत्मप्रदेशों का मूल शरीर से बाहर फैलना वैक्रियिक समुद्घात है।
-जै.ग. 15-2-62/VII/म. ला.
पाहारक शरीर के उत्पत्तिस्थान या उत्पत्तिकाल नियत नहीं होते शंका-क्या आहारक शरीर समुद्घात का कोई काल या क्षेत्र नियत है, अर्थात हस्तिनागपुर में ही निकलेगा. काशी में ही निकलेगा, पटना में ही निकलेगा, राजगृह में ही निकलेगा, अन्यत्र नहीं निकलेगा; क्या कोई ऐसा क्षेत्र विशेष नियत है ? अथवा प्रातःकाल निकलेगा अन्य काल नहीं निकलेगा, दोपहर को निकलेगा अन्य काल नहीं निकलेगा इत्यादि या बसंत आदि ऋतुओं में से कोई विशेष ऋतु क्या नियत है?
समाधान-आहारक शरीर समुद्घात के लिये किसी ऋतु, घड़ी, घंटा आदि काल का नियम नहीं है और न ही किसी ग्राम, नगर आदि क्षेत्र का नियम है प्रतः इस प्रकार काल व क्षेत्र नियत नहीं है, किन्तु इतना नियम है कि 'प्रमत्त संयत के ही आहारकशरीर होता है।' अर्थात् जिस समय मुनि आहारक शरीर की रचना करता है उस समय वह प्रमत्त संयत होता है। इसलिये तत्त्वार्थसूत्र अ० २ सूत्र ४९ में 'प्रमत्तसंयतस्यैव' पद दिया गया है ( राजवातिक अ०२ सूत्र ४९ वार्तिक ५-७)। प्रमत्तसंयत मुनि के द्वारा सूक्ष्म तत्त्वज्ञान और असंयम के परिहार के लिए आहारक शरीर की रचना की जाती है ( राजवातिक अ०२ सूत्र ३६ वार्तिक ६ )।
-. ग. 21-5-64/IX/सुरेशचन्द्र आहारक तथा मारणांतिक समुद्घात में मोड़ा भी लिया जा सकता है शंका-कलकत्ता से प्रकाशित राजवातिक पृष्ठ ३६९ पर आहारक तथा मारणांतिक समुदघात का एक ही दिशा में गमन बताया है सो कैसे बनता है? क्या तिरछा भी गमन करते हैं ? यदि नहीं तो मोड़ा जरूर लेते होंगे। मोड़ा लेने में दो दिशा में गमन हो ही जाता है।
समाधान-जिस प्रकार विग्रहगति में प्रात्मा के सब ओर ( तरफ ) न फैल कर एक ही दिशा को जाते हैं यदि आवश्यकता होती है तो मोड़ा भी लेते हैं उस ही प्रकार आहारक व मारणांतिक समुद्घात में आत्मा के प्रदेश सब ओर न फैल कर एक ही ओर प्रसार करते हैं। यदि आवश्यक्ता होती है तो मोड़ा भी लेते हैं। यहाँ पर एक दिशा से यह अभिप्राय है कि आत्मा के प्रदेश सब ओर प्रसार नहीं करते किन्तु एक दिशा की ओर ही प्रसार करते हैं किन्तु अन्य पांच समुद्घातों आत्म प्रदेशों का सब ओर प्रसार होता है।
-जे.ग. 16-8-62/.../स. प्र. जैन
शंका-कलकत्ता से प्रकाशित राजवातिक पृष्ठ ३७० पर केवली समुद्घात का काल ८ समय बताया है। कहीं पर ७ समय कहा है। कोनसा ठीक है ? शेष ६ समुद्घात का काल संख्यात समय लिखा है किन्तु ज्ञानपीठ से प्रकाशित सर्वार्थसिद्धि में असंख्यात समय लिखा है कौनसा ठीक है ? असंख्यात समय होना चाहिए, ऐसा जंचता है।
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