________________
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
१४ ]
टीकाएँ लिखीं । आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित "लब्धिसार" "क्षपणासार" की टीका तो प्रकाशित हो गई है । ‘“गोम्मटसार" जीवकाण्ड की नवीन वृहद् टीका आप अपने जीवन के उपान्त्य दिवस पर्यन्त लिखते रहे थे । मात्र ३७ गाथाएँ शेष रह गई थीं । “त्रिलोकसार " तथा "गोम्मटसार" - कर्मकाण्ड प्रकाशित हो चुके हैं; नवीन हिन्दी टीका सहित इनके सम्पादन में आपका अहर्निश स्तुत्य सहयोग प्राप्त हुआ था । इनके अतिरिक्त भी आपने अनेक ग्रन्थों का सम्पादन किया, जैन दर्शन के महत्त्वपूर्ण विषयों पर छोटे ट्रैक्ट लिखे । इस प्रकार आपने अपना समग्नजीवन "श्रुतसेवा" में व्यतीत किया; यह सेवाक्रम आयुपर्यन्त अबाध गति से चलता रहा ।
स्वर्गीय मुख्तार सा० के प्रति मेरी यही मङ्गलभावना है कि वे यथाशीघ्र संसार एवं इसके दुःखों से मुक्ति-लाभ करें ।
अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी
* पूज्य १०५ आर्यिका श्री जिनमती माताजी
ज्ञानाभ्यास करें मन मांही, ताके मोह महातम नाहीं ॥
जगत् के सम्पूर्ण पदार्थं ज्ञान द्वारा गम्य होते हैं अतः ज्ञान को भानु से उपमित किया जाता है । भानु का प्रकाश सीमित है किन्तु ज्ञान रूप प्रकाश अनन्त आकाश से भी अनन्त है, निस्सीम है । यह प्रकाश प्रत्येक आत्मा में स्थित है । कर्मरूपी रज के कारण वह श्राच्छादित है; अंशरूपेण विकसित है । सत्पुरुषार्थ के बल से ज्ञानीजन कर्मावरण को अल्प करते हुए क्रमशः उस अविनश्वर, व्यापक एवं पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करते हैं- यज्ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा त्रैलोक्यं गोष्पदायते, जिस ज्ञान के अन्तर्गत तीनों लोक गौ के खुर समान प्रतीत होते हैं अर्थात् अल्प- अल्पल्प प्रतीत होते हैं ।
वर्तमान में ज्ञान का बहुत बोलबाला है । बड़े-बड़े विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालयों में अनेकानेक व्यक्ति अध्ययनरत हैं किन्तु उनका यह ज्ञान एक मात्र भौतिक पदार्थों तक ही सीमित है एवं वासनादि विभावों को विस्तृत करने वाला ही सिद्ध हो रहा है। ज्ञान तो वह है
जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्त निरुज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं गाणं जिणसासणे ॥१॥
Jain Education International
जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएस रज्जदि । जेण मित्ति प्रभावज्ज, तं गाणं जिणसासणे ॥२॥
अर्थात् जिसके द्वारा तत्त्वों को जाना जाता है, जिसके द्वारा चित्त का निरोध होता है अर्थात् मन रूपी गन्धहस्ती वश में होता है व जिससे आत्मा सुविशुद्ध होता है, जिनशासन में उसी को ज्ञान कहा है । जिसके द्वारा रागादि विकार नष्ट होते हैं, जिससे श्रेयोमार्ग में रुचि होती है व जिसके द्वारा जीव मात्र के प्रति मित्रता प्रस्फुटित होती है, जिनशासन में उसी को ज्ञान कहा है ।
आत्मोन्नतिकारक इस विशिष्ट ज्ञान को प्राप्त करने के लिये सत्य के उपदेष्टा पूर्ण ज्ञानी तीर्थङ्करों द्वारा अर्थरूप से प्रतिपादित एवं गणधर आचार्यादि द्वारा विरचित ग्रन्थों का अध्ययन-मनन आवश्यक है । इन ग्रन्थों का
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org