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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ! शंका--पारिणामिकभाव में उत्पाद व्यय होता है या नहीं? नहीं होता तो क्यों ? क्या इसे कूटस्थ मान लिया जावे?
शंका-अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व आदि सामान्य गुणों में उत्पाद व्यय कैसे घटित होता है ?
शंका-जीवत्वभावको चैतन्यभाव कह सकते हैं क्या ? चैतन्यभाव का क्या लक्षण है ? क्या जीवत्वभाव को चेतना भी कहा जा सकता है ?
शंका-जीव के पाँच भाव हैं सो भाव क्या हैं ? क्या ये जीव के गुण नहीं हैं ?
समाधान-प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक होती है। द्रव्याथिकनय सामान्य को ग्रहण करता है और पर्यायाथिकनय विशेष को ग्रहण करता है। यद्यपि सामान्य के बिना विशेष और विशेष के बिना सामान्य कभी नहीं होता, क्योंकि दोनों का परस्पर अविनाभावी सम्बन्ध है फिर भी भिन्न-भिन्न दृष्टियों के द्वारा उनको पृथक् ग्रहण किया जा सकता है। जीव भी एक वस्तु है उसमें जीवत्व पारिणामिकभाव सामान्य है और औपशमिक आदि शेष चार भाव विशेष हैं । ( रा. वा० अ० २ सू० १ वा० २३ ) ये ( औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदयिक, पारिणामिक ) पांचों भाव जीव के निजतत्त्व अर्थात् असाधारण धर्म हैं, गुण नहीं हैं ( रा० वा० अ० २१०१ वा०६) । अथवा औपशमिकादि पाँचों भाव गुण हैं, क्योंकि इनमें जीव रहते हैं (ध. पु. १ पृ. १६०)।
'जीवत्व' पारिणामिकभाव 'द्रव्य' या 'गुण' तो हो नहीं सकता, क्योंकि 'द्रव्य' और 'गुण' दोनों सामान्य-विशेष स्वरूप हैं, कारण कि द्रव्य पर्याय व गुण-पर्याय दोनों प्रकार के विशेष भी पाये जाते हैं (प्र.सा. गाथा १३) 'जीवत्व' पारिणामिकभाव पर्याय भी नहीं है, क्योंकि पर्याय तो स्वयं विशेष है। जीवत्व उन सब पीयों में अन्यत्र रूप से रहने वाला और ध्रौव्य से लक्षित सामान्य है (प्र० सा० गाथा ९५) 'जीवत्व' पारिणामिक भाव ध्रौव्य स्वरूप होने से उत्पाद-व्यय स्वरूप नहीं है। 'जीवत्व' द्रव्याथिकनय का विषय होने से अनादि-अनन्त नित्य अर्थात् कूटस्थ है।
अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व आदि सामान्य (साधारण) गुण द्रव्य के आश्रय हैं। द्रव्य में उत्पादव्यय होता है अतः उस द्रव्य के आश्रित गुणों में भी उत्पाद-व्यय होता है । इस अपेक्षा से अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व प्रमेयत्व आदि सामान्य गुणों में भी उत्पाद-व्यय स्वीकार कर लेने में कोई बाधा नहीं पाती।
'जीवत्व' को 'चैतन्य' भी कह सकते हैं, क्योंकि अनादि द्रव्य-भवन का निमित्त पणा ते पारिणामिक है। (रा० वा० अ०२ सत्र ७वा०६) चेतना के विशेषों में अन्वय रूप से रहने वाला 'चैतन्य' है। 'जीवत्व' को चेतना नहीं कह सकते, क्योंकि 'चेतना' सामान्यविशेषात्मक है और 'चैतन्य' सामान्यरूप है।
___ साधक को शुद्ध आत्मा के अवलंबन से शुद्ध अवस्था अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होगी। पारिणामिक 'चैतन्य' भाव अर्थात 'जीवत्व' भाव आत्मा-द्रव्यपना तो जीव की शुद्ध और अशुद्ध दोनों अवस्थानों में अन्वयरूप से रहने वाला है । 'जीवत्व' को कारणसमयसार भी नहीं कह सकते, क्योंकि कारणसमयसार सो जीव की साधक अवस्था (पर्याय) है जो विनाशीक है और 'जीवत्व' पारिणामिकभाव अनादि-अनन्त अविनाशी है। श्री प्रवचनसार गाथा १८ की टीका में श्री जयसेन आचार्य ने कहा भी है-शुद्धात्मरुचि-परिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिलक्षणस्य संसारावसानोत्पन्नकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशो भवति तथैव केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादश्च भवति. तथापिउभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति ।
-जे.ग. 11-7-63/IX/म. ला. जैन
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