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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ५१३ "फलदानसामर्थ्यमनुभव इत्युच्यते । ततोऽनुभूतानामात्तवीर्याणां पुद्गलानां निवृत्तिनिर्जरेत्ययमर्थभेदः ।"
. (राजवातिक ८।२३।५) कर्मों की फल देने की सामर्थ्य को अनुभव अर्थात् अनुभाग कहते हैं । अनुभव के पश्चात् जिनकी फलदानशक्ति भोगी जा चुकी है ऐसे पुद्गलकर्मों की प्रात्मा से निवृत्ति हो जाना अर्थात् प्रात्मा से सम्बन्ध छूट जाने पर उन कर्मों की कर्मरूप पर्याय का नष्ट हो जाना ही निर्जरा है। इसप्रकार अनुभागबन्ध में निर्जरा का अन्तर्भाव नहीं हो सकता है।
-जै.ग. 10-12-70/VI/रो. ला. मित्तल
करण
बन्धकरण प्राबाधा का अर्थ तथा प्रायु के प्राबाधा-प्रायाम की विशेषता
शंका-आयाधाकाल का लक्षण क्या है ? आयुफर्म का आवाधाकाल अपकषित या उत्कर्षित हो सकता है या नहीं ? यदि हो तो कैसे ? नहीं तो क्यों ?
समाधान-बाधा के अभाव को आबाधा कहते हैं और अबाधा ही आबाधा है। बंधके समय से लेकर जितने काल तक निषेक रचना न हो उसको पाबाधाकाल कहते हैं । ( धवल पु. ६ पृ. १४८ )
जिसप्रकार ज्ञानावरणादि कर्मों की प्राबाधा के भीतर अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण के द्वारा निषकों के बाधा होती है उस प्रकार आयुकर्म की बाधा नहीं होती है । कहा भी है
"जधा णाणावरणाविणमाबाधाए अन्भतरे ओकड्डणउक्कडुण-परपयसिंकमेहि णिसेयाणं बाधा होदि, तथा आउअस्स बाधा णस्थि ।" ( धवल पु. ६ पृ. १७१)
-जं.ग. 21-11-66/IX/र.ला. जैन
उपशमकरण व उपशमभाव
शंका-नवें और दसवें गुणस्थान में उपशम तो होय है, किन्तु उपशमकरण नहीं होय है देखो गो. क. गा. ३४३ व ४४२ । उपशम और उपशमकरण का क्या अभिप्राय है ?
समाधान-प्रात्मपरिणामों की विशुद्धता के कारण जो कर्मप्रकृति उदीरणा के अयोग्य हो जाम वह उपशम है। वह दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दो प्रकृतियों का ही होता है। इसीलिये मोहनीयकर्म का उपशम होकर उपशमसम्यक्त्व और उपशमचारित्र दो ही प्रकार का प्रौपशमिकभाव होता है।
संक्लेशपरिणामों से बंध के समय जिन कर्मप्रदेशों में ऐसा बंध होय कि वे उदयावली में प्राप्त न किये जा सके उसको उपशमकरण कहते हैं। उपशमकरण आठों कर्मों में होता है, किंतु उपशम मोहनीयकर्म का होता है। शेष सासकर्मों का नहीं होता। (गो.क. गाया ४४१)
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