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________________ ४६० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : यद्यपि तिमंचों में नियम से नीचगोत्र बतलाया गया है तथापि संयतासंयततियंचों में उच्चगोत्र भी संभव है, क्योंकि उच्चगोत्र का उदय गुणप्रत्ययिक और भवप्रत्ययिक दो प्रकार का है अर्थात् किन्हीं जीवों के उच्चगोत्र के उदय में भव कारण होता और किन्हीं जीवों के गुणरूप ( संयम व संयमासंयमरूप) परिणाम कारण होता है। "तिरिक्खेसु संजमासंजमं परिवालयंतेसु उच्चागोदत्तवलंभादो । उच्चागोदाणमुदीरणा गुणपडिवणे परिणामपच्च इया, अगुणपडिवण्रणेसु भवपच्चइया । को पूण गुणो? संजमो संजमासंजमोवा।" (धवल पु. १५ पृ. १५२, १७४ ) -संयमासंयम को पालनेवाले तियंचों में उच्चगोत्र पाया जाता है। ऊंचगोत्र की उदीरणा गुणप्रतिपन्न जीवों में परिणामप्रत्ययिक और अगुणप्रतिपन्न जीवों में भवप्रत्ययिक होती है । गुण से अभिप्राय संयम और संयमासंयम का है। गोत्रकर्म की व्याख्या समझने के लिये धवल पु. १३ पृ. २२८ व २८९ पर जो शंकासमाधान है वह विशेषरूप से ध्यान देने योग्य है । वह इस प्रकार है। प्रश्न-उपचगोत्र निष्फल है, क्योंकि (१) राज्यादिरूप सम्पदा की प्राप्ति में उच्चगोत्र का व्यापार होता नहीं है. उसकी उत्पत्ति सातावेदनीयकर्म के निमित्त से होती है। (२) पांच महाव्रतों के ग्रहण करने की योग्यता भी उच्चगोत्र के द्वारा नहीं की जाती है, ऐसा मानने पर जो सब देव और अभव्य जीव पाँच महाव्रतों को नहीं धारण कर सकते हैं उनमें उच्चगोत्र के उदय का प्रभाव प्राप्त होता है। (३) सम्यग्ज्ञान की उत्पा द्वारा नहीं होती, उसकी उत्पत्ति तो ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से सहकृत सम्यग्दर्शन से होती है तथा ऐसा मानने पर सम्यग्ज्ञानी तिर्यंच व नारकियों के भी उच्चगोत्र का उदय मानना पड़ेगा। (४) आदेयता यश और सौभाग्य की प्राप्ति में भी उच्चगोत्र का व्यापार नहीं होता है इनकी उत्पत्ति नामकर्मोदय से होती है। (५) इक्ष्वाक कलादि की उत्पत्ति में भी उच्चगोत्र का व्यापार नहीं होता। परमार्थ से उनका अस्तित्व ही नहीं वे काल्पनिक हैं। इसके अतिरिक्त वैश्य, ब्राह्मण साधुओं में उच्चगोत्र का उदय देखा जाता है। (६) सम्पन्न-जनों से जीवों की उत्पत्ति में भी उच्चगोत्र का व्यापार नहीं होता है, इस तरह तो म्लेच्छराज से उत्पन्न हुए बालक के भी उच्चगोत्र का उदय प्राप्त हो जायगा। (७) अणुव्रतियों से जीवों की उत्पत्ति में उच्चगोत्र का व्यापार होता है यह कहना भी नहीं ऐसा मानने पर औपपादिकदेवों में उच्चगोत्र के उदय का अभाव प्राप्त होता है तथा नाभिपूत्र नीचगोत्री ठहरता है। इसप्रकार उच्चगोत्र का अभाव ठहरता है। उच्चगोत्र का अभाव होने पर उसके प्रतिपक्षी नीचगोत्र का अभाव ठहरता है । अतः गोत्रकर्म है ही नहीं। इस प्रश्न के उत्तर में श्री वीरसेन आचार्य कहते हैं कि गोत्रकर्म का अभाव नहीं है. क्योंकि जिनवचनो असत्य होने में विरोध आता है। यह विरोध भी वहाँ उसके कारणों के नहीं होने से जाना जाता है। दूसरे केवलजान के द्वारा सभी अर्थों में छद्मस्थों के ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं होता है । इसलिये छद्मस्थों को कोई अर्थ उपलब्ध नहीं होता है तो इससे जिन वचनों को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता है। गोत्रकर्म निष्फल भी नहीं है, क्योंकि जिनका दीक्षा योग्य साधु आचार है, साधु प्राचारवालों के साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित किया है तथा जो 'आर्य' इस प्रकार के ज्ञान और वचन व्यवहार के निमित्त हैं, उन पुरुषों की परम्परा को उच्चगोत्र कहा जाता है तथा उनमें उत्पत्ति का कारणभूत कर्म भी उच्चगोत्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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