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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तारः
पुद्गलविपाकी शरीरनामकर्मोदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है वह योग है।
शरीर नामकर्मोदय से जीव में कर्म-ग्रहणशक्ति उत्पन्न होती है जो योग है अतः योग औदयिकभाव भी माना गया है। कहा भी है
"जोगमग्गणा वि ओवइया, गामकम्मस्स उदीरणोदयजणिदत्तादो।" ( धवल पु. ९ पृ. ३१६ )। योग मार्गणा भी औदयिक है, क्योंकि वह नामकर्म की उदीरणा व उदय से उत्पन्न होती है ।
"ओदइयभावट्ठाणेण अहियारो, अघादिकम्माणमुदएण तप्पओग्गेण जोगुप्पतीदो।" ( धवल पु० १० पृ० ४३६ )।
प्रौदयिक भावस्थान का अधिकार है, क्योंकि योग की उत्पत्ति तत्मायोग्य अघातियाकर्मों के उदय से होती है।
"जदि जोगो वीरियंतराइयखओवसमजणिदो तो सजोगिम्हि जोगाभावो पसज्जदे ? ण, उवयारेण खओव. समियं भावं पत्तस्स ओदइयस्स जोगस्स तत्थाभावविरोहादो।" ( धवल पु. ७ पृ.७६ )।
वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से यदि योग उत्पन्न होता है तो सयोगिकेवली में योग के अभाव का प्रसंग आता है ? सयोगिकेवली में योग के प्रभाव का प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि योग में क्षायोपशमिकभाव तो उपचार से माना गया है। असल में तो योग औदयिकभाव ही है और औदयिकयोग का सयोगिकेवली में अभाव मानने में विरोध आता है।
ओदइओ जोगो, सरीरणामकम्मोदयविणासाणंतरं जोगविणासुवलम्भा।" (धवल पृ. ५ पृ. २५६ ) योग प्रौदयिकभाव है, क्योंकि शरीर नामकर्मोदय का नाश होने पर ही योग का विनाश पाया जाता है ।
शरीर नामर्कोदय से शरीर की रचना होती है, शरीर संयुक्त होने के कारण जीव मूर्त हो जाता है तथा उसमें कर्म व नोकर्म वर्गणाओं को ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है जिसे योग कहते हैं। उस योग से ही प्रदेशों का ग्रहण होकर संचय होता है ।
पदेस अप्याबहुए त्ति जहा जोगअप्पाबहगं णीदं तधारणेदव्वं ॥१७४॥
जोगादो कम्मपदेसाणमागमो होदि त्ति कधं णव्वदे? एदम्हादो चेव पदेसअप्पाबहुगसुत्तादो णव्वदे। णच पमाणंतरमवेक्खदे, अणवस्थापसंगादो। तेण गुणिदकम्मासिओ तप्पाओग्ग उक्कस्सजोगेहि चेव हिंडावेदव्वो अण्णहा बहुपदेससंचयाणववत्तीदो । खविदकम्मसिओ वि तप्पाओग्गजहण्णजोगपत्तीए खग्गधार सरिसीए पयट्टावेदव्यो, अण्णहा कम्मणोकम्मपदेसाणं थोवत्ताणुववत्तीदो।" ( धवल पु० १० १० ४३१-४३२ )।
जिसप्रकार योग अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार प्रदेश प्रल्पबहुत्व की प्ररूपणा करना चाहिये ॥ १७४॥
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