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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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'दर्शनमोहनीयकर्म चारित्र का घातक है' ऐसी जो कुछ विद्वानों की निजी कल्पना है वह पार्ष वचनों के अनुकूल नहीं है। जिस सिद्धान्त का समर्थन पार्षवाक्यों से नहीं होता है वह सिद्धान्त मिथ्या है।
-जें. ग.30-4-70/1X/र. ला. जन
उपघात तथा परघात का एक साथ उदय सम्भव है
शंका-क्या उपधात व परघात प्रकृतियों का उदय एक साथ हो सकत
समाधान-उपघात व परघात नामकर्म का स्वरूप निम्न प्रकार है
"उपेत्य घात उपघात: आत्मघात इत्यर्थः। जं कम्मं जीवपीडाहेउअवयवे कुणदि, जीवपीडाहेदव्वाणि वा विसासि पासादीणि जीवस्स ढोएवि तं उवधादं णाम । के जीवपीडा कार्यवयवा इति चेन्महाशृद्ध-लम्बस्तन-तुदोदरादयः। जदि उवघादणामकम्मं जीवस्स ण होज्ज, तो सरीरादो वादपित्तसेभदूसिदादो जीवस्स पोड़ा ण होज्ज। ण च एवं अणुवलंभादो।" ( धवल पु० ६ पृ० ५९ )।
स्वयं प्राप्त होने वाले घात को उपघात अथवा आत्मघात कहते हैं। जो कर्म शरीरअवयवों को जीव की पीड़ा का कारण बना देता है, अथवा विष, पाश आदि जीव पीड़ा के कारण स्वरूप द्रव्यों को जीव के लिये ढोता है, अर्थात् लाकर संयुक्त करता है, वह उपघात नामकर्म कहलाता है। महाशृग, लम्बेस्तन, विशाल तोंदवाला पेट आदि जीव को पीड़ा करने वाले अवयव हैं। यदि उपघात नामकर्म न हो तो वात, पित्त और कफ से दुषित शरीर से जीव के पीड़ा नहीं होना चाहिये, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता।
"परेषांघातः परघातः। जस्स कम्मस्स उदएण परघादहेदूसरीरे पोग्गला णिप्फज्जति तं कम्मं परघावं णाम । तं जहा सप्पवाढासु विसं, विच्छियपुछे परदुःखहेउपोग्गलो वचओ, सीह-वग्घच्छवलाविसु णह वंता, सिगिवच्छणाहीधतूरावओ च परघावुप्पायया ।" ( धवल ६।५९ )।
परजीवों के घातको परघात कहते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर में परका घात करने के कारणभूत पुद्गल निष्पन्न होते हैं, यह परघात नामकर्म कहलाता है। जैसे सांप की दाढ़ों में विष, बिच्छू की पूछ में परदुःख के कारणभूत पुद्गलों का संचय, सिंह, व्याघ्र और चीता आदि में तीक्ष्ण नख और दन्त तथा सिंघी व रत्स्यनाभि और धतूरा आदि विषैले वृक्ष पर को दुख उत्पन्न करने वाले हैं। उपघात और परघात इन दोनों के लक्षणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनों प्रकृतियों का एक साथ उदय होने में कोई बाधा नहीं है।
-णे. ग. 16-5-74/VI/ ज. ला. जैन, भीण्डर परघात को भिन्न-भिन्न व्याख्या शंका -- सर्वार्थ सिद्धि ८।११।२९७ में लिखा है जिसके उदय से पर-शस्त्र आदि का निमित्त पाकर व्याघात होता है वह परघात नामकर्म है । इस लक्षण से तो परघातप्रकृति को अप्रशस्तप्रकृतित्व प्राप्त होता है, किन्तु सूत्र २५की टीका में परघात को पुण्य प्रकृति कहा है और सूत्र २६ की टीका में 'उपघात' को पापप्रकृति कहा है। सो कैसे ?
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