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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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रागषमदमत्सरशोकक्रोध लोभभयमन्मथमोहाः । सर्वजंतुनिवहैरनुभूताः, कर्मणा किमु भवंति विनते ॥७॥५५॥ ते जीवजन्याः प्रभवंति नूनं, नैषापि भाषा खलु युक्तियुक्ता। नित्य प्रसक्तिः कथमन्ययैषा, संपद्यमाना प्रतिषेधनीया ॥७॥५६॥
अर्थ-राग, द्वेष, मद, मत्सर, शोक, क्रोध, लोभ, भय, काम, मोह इत्यादि विकारभाव सर्वजीवों के अनुभव में पाते हैं। ते विकार भावकर्म बिना कैसे होय ? यदि ते रागादिभाव जीव ही तें उपजे तो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योकि यदि रागादि जीव ही तें उपज तो इनका सम्बन्ध नित्य हो जायगा और इनका निषेध नहीं हो सकेगा। अर्थात् यदि रागादि की उत्पत्ति कर्म बिना मात्र जीव ही से मान ली जावे तो इनका सम्बन्ध नित्य होने से इनका अभाव नहीं हो सकेगा और इसप्रकार मोक्ष के प्रभाव का प्रसंग आ जायगा। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि रागादिभाव कर्मजनित हैं।
इसी बात को श्री कुन्दकुन्द तथा अमृतचन्द्र आचार्य समयसार में कहते हैं
रागावयो बंधनिबानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः ।।
आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तमिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः॥१७४॥ अर्थ-रागादि बन्ध के कारण हैं और शुद्ध-चैतन्य मात्र आत्मा से भिन्न कहे गये । यहाँ शिष्य पूछता है कि रागादि के होने में आत्मा निमित्त है या अन्य ? श्री कुन्दकुन्द आचार्य उत्तर देते हैं
जह फलिहमणी सुद्धो सयं परिणमइ रायमाईहि । रंगिजवि अन्णेहि दु सो रसादीहिं दम्वेहि ॥ २७८ ॥ एवं णाणी सुद्धो ण सपं परिणमइ रायमाईहिं । राइज्जवि अम्णेहिं दु सो रागावीहिं दोसेहिं ।। २७९ ॥ ( समयसार )
अर्थ-जैसे स्फटिकमणि आप शुद्ध है वह ललाई आदि रंगस्वरूप आप तो नहीं परिणमती, परन्तु वह दसरे लाल, काले आदि द्रव्यों से ललाई मादि रंगस्वरूप परिणमती है। इसी प्रकार जीव आप शुद्ध है वह रागादि भावोंरूप आप तो नहीं परिणमता, परन्तु रागादि दोषों से युक्त अन्य से ( द्रव्यकर्म से ) रागादिरूप किया जाता है।
इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैं
"अकेला आत्मा परिणमनस्वभाव होने पर भी अपने शुद्ध स्वभावपने कर रागादि निमित्तपने के प्रभाव से आप ही रागादि भावों कर नहीं परिणमता, अपने पाप ही रागादिपरिणाम का निमित्त नहीं है, परन्तु परद्रव्य स्वयं रागादिभाव को प्राप्त होने से आत्मा के रागादिक का निमित्तभूत है। उस कर ( कर्म-उदय कर ) शुद्ध स्वभाव से व्युत हुमा ही रागादिरूप आत्मा परिणमता है । ऐसा ही वस्तु का स्वभाव है।"
श्री पं० जयचन्दजी कृत भावार्थ-आत्मा एकाकी तो शुद्ध ही है, परन्तु परिणाम-स्वभाव है, जिसतरह का पर का निमित्त मिले वैसा ही परिणमता है। इसलिये रागादिकरूप परद्रव्य के निमित्त से परिणमता है। जैसे
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