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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
शंका-क्या घातिया कर्मोदय अनुसार ही उसका फल होता है या हीन-अधिक भी होता है या घातिया कर्मोदय तो होवे और उसका फल न भी होवे? .
समाधान-उदयका लक्षण इस प्रकार है-'अपने फल के उत्पन्न करने में समर्थ जो कर्मअवस्था वह उदय है।। अथवा द्रव्यादि निमित्त के वश से कर्मों के फल का प्राप्त होना उदय है । अथवा कर्म का अनुभव 'उदय' है। अथवा कर्मस्कंध फल देने के समय में 'उदय' संज्ञा को प्राप्त होते हैं। जब कर्म-फल का अनुभव ही उदय है तब यह प्रश्न उत्पन्न नहीं होता कि कर्म के उदय के अनुसार ही उसका फल होय है या हीनाधिक होय है।' घातियाकर्मों के उदय के अनुसार ही प्रात्मा के परिणाम होते हैं एक अंश भी हीनाधिक नहीं होते हैं अर्थात् कर्मोदय की डिग्री ट डिग्री ( Degree To Degree ) आत्मपरिणाम होय हैं। जैसे जितना जल में उष्णता होगी उतना ही तापमान में पारा चढ़ जायगा। दोनों में एक अंश का अंतर नहीं हो सकता। इसी प्रकार जितने फलदान परिमाण को लिए हए घातियाकर्म उदय में आते हैं उतने परिमारण रूप आत्मा के परिणाम हो जाते हैं।
क्षपकश्रेणी के दसवें गूणस्थान में कृष्टिकरगआदि के द्वारा कृष की गई संज्वलनलोभप्रकृति अतिसक्षमरूप से उदय में आती है और उससमय अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणआदि के द्वारा आत्मपरिणाम की विशद्धता बहत अधिक होती है, अर्थात् दसवें गुणस्थान में आत्मा की शक्ति प्रबल होती है और मोहनीय कर्मकी शक्ति अत्यन्त क्षीण होती है। फिर भी उस सूक्ष्मसंज्वलनलोभ कषाय के उदय के अनुसार ( अनुरूप ) आत्मपरिणाम भी सूक्ष्मलोभकषायरूप हो जाते हैं। जिसके कारण चौदह पाप और तीन पुण्य प्रकृतियों (ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४, अंतराय ५, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र, सातावेदनीय ) का चारों प्रकार का ( प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश )
होता है। जब क्षपकवेणी गत दसवें गुणस्थानवाले जीव के परिणाम कर्मोदय के साथ डिग्री टु डिग्री होते हैं तब हम क्षुद्रप्राणियों के परिणाम तो अवश्य घातियाकर्मोदय के साथ डिग्री टु डिग्री होंगे। उसमें एक अंश भी हीन या अधिक नहीं हो सकता । कर्मोदय की यह विचित्र शक्ति है।
जैसा कर्म पूर्व में बाँधा था उस पूर्व बँधे कर्म के उदय के अनुरूप आत्मा के परिणाम होते हैं। कहा भी है-"काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की उत्पत्ति जामें होय है, ऐसा भाव संसार है। सो भनेक प्रकार है.
सुख-दुःख आदि अनेक प्रकार होय हैं। जो यह विचित्ररूप संसार है सो कर्मबंध के अनुरूप होय है। जैसा कर्म पूर्व बांध्या था ताके उदय के अनुसार होय है।" ( आप्तमीमांसा कारिका ९९, श्री पं० जयचन्दजी कृत अनुवाद ) । इसीप्रकार पंचास्तिकाय की टीका में श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने कहा है-"जीव वास्तव में मोहनीय के उदय का अनुसरण करनेवाली परिणति के वश रंजित-उपयोगवाला होता हुआ, परद्रव्य में शुभ या अशुभ भावों को धारण करता है ( गाथा १५६)। अनादि मोहनीय के उदय का अनुसरण करके परिणति करने के कारण उपरोक्त उपयोगवाला होता है (गाथा १५५ ) । वास्तव में संसारी प्रात्मा अनादिकाल से मोहनीयकर्म के उदय का अनुसरण
१. 'यानि स्वफलसंपादनकर्मावस्थालक्षणाभ्युदयस्थानानि । ( स. सा. गाथा ५3 की आत्मख्याति टीका)। २. द्रव्यादिनिमित्तवत्रात्कर्मणां फलप्राप्तिरुत्यः ।' ( स. सि. अ. १ सूत १)। 3. 'कर्मणामनुभवनमुदयः।' (पाकृतपंचसंग्रह पृ. १७)
४. 'तेश्येय फलदाणसमए उदयवथएसं पडिवण्जति । (जयधवलप.
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