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मिथ्यात्व ध्रुवोदयी नहीं है
शंका- मिथ्यात्व को ध्रुवोदयी क्यों नहीं माना, ध्रुवबंधी तो माना है, क्योंकि यह प्रकृति बंधव्युच्छित्ति तक बराबर निरन्तर बंध होने से ध्रुवबंधी कहलाती है वैसे ही उदयव्युच्छेव तक निरन्तर उदय आते रहने से इसे ध्रुवोदयी भी कहना चाहिए; पर मिथ्यात्व को ध्रुवोदयी नहीं कहा तो फिर इसे ४७ ध्रुबंबंधी प्रकृतियों में भी नहीं कहना चाहिए या फिर ध्रुवोदयी भी कहा जाए ?
समाधान—जब तक बन्धभ्युच्छित्ति नहीं होती तब तक निरन्तर बँधनेवाली प्रकृति ध्रुवबंधी है, किन्तु उदय में यह विवक्षा नहीं है । ससार ( छद्मस्थ ) अवस्था में जिसका निरन्तर उदय रहे वह ध्रुवउदयी प्रकृति है । आपके मतानुसार तो नित्यनिगोदियाजीव ( गो० जी० गाथा १९७ ) के तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति स्थावर काय tataगोत्र का निरन्तर उदय होने से ये भी ध्रुव उदयी हो जावेंगी। यदि ये ध्रुवउदयी नहीं हैं तो मिथ्यात्व भी ध्रुवदी नहीं है ।
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
- पत्र 22-6-80 / ज. ला. जैन, भीण्डर (१) कर्म का स्वरूप, भेद, उपभेद, शक्ति, बलवत्ता, जीवस्वभावघातकत्व श्रादि (२) घातिया कर्मों के उदयानुसार ही फल प्राप्ति
शंका-कर्म किसे कहते हैं और वह कितने प्रकार का होता है ?
समाधान -- जो जीव को परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं; अथवा जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामों से जो किये जाते हैं वे कर्म हैं, वे कर्म दो प्रकार के हैं
१. द्रव्यकर्म २. भावकर्म । उनमें द्रव्यकर्म मूलप्रकृतियों के भेद से भाठप्रकार का है - १० ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. मोहनीय, ४. अंतराय, ५. वेदनीय, ६. आयु, ७. नाम, ८ गोत्र । उत्तरप्रकृतियों के भेद से एक सौ अड़तालीस प्रकार का है, तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियों के भेद से अनेक प्रकार का और वे सब पुद्गल परिमात्मक हैं क्योंकि वे जीव की परतंत्रता के कारण हैं, जैसे निगड़ आदि ।
यदि यह कहा जावे कि जीव की परतंत्रता के कारण क्रोधादिक हैं, सो यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्रोधआदि जीव के परिणाम हैं, इसलिए वे परतंत्रतारूप हैं- परतंत्रता में कारण नहीं । जीव का क्रोधादि परिणाम स्वयं परतंत्रता है, परतंत्रता का कारण नहीं ।
भावकर्म चैतन्य परिणामरूप हैं, क्योंकि क्रोधादिकर्मों के उदय से होनेवाले क्रोधादि श्रात्मपरिणाम यद्यपि दयिक हैं तथापि वे कथंचित् आत्मा से अभिन्न हैं, इसलिये उनके चैतन्यरूपता का विरोध नहीं'। श्री समयसार में भी कहा है कि द्रव्यकर्म के द्वारा भावकर्म किये जाते हैं ।
१. आप्त परीक्षा कारिका ११४- ११५ की टीका ।
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जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादिहि देहि ॥ २७८ ॥
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