________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ४४७
(१) किन्हीं कर्मोदय के निमित्त बाह्य सामग्री तथा अन्य जीवों में भी परिरगमन होता है। (२) कर्म का कार्य निमित्त जुटाना है भी और नहीं भी
शंका- क्या बाहरी सामग्री पर या किसी दूसरे प्राणी पर हमारे कर्म का असर है, यदि है तो किस कदर ? मान लीजिये मेरे तीव्र फोधकवाय का उदय है और क्रोध करने की सामग्री नहीं मिली और मैंने अपने पुरुषार्थ से क्रोध के बल गाली दे दी। दूसरा उसका बुरा नहीं मानता तो मेरा कर्म दूसरे पर अन्य क्या असर कर सकता है।
शंका-क्या कर्म का काम निर्मित जुटाना भी है ? ज्ञानावरणीय कर्म के उदय में आत्मा और शरीर सम्बन्धी ऐसे निमित्त तो मिल सकते हैं जैसे इन्द्रिय का न मिलना, बल का न होना, उपयोग का न लगना। क्या इनके अतिरिक्त अन्य निमित्त भी ज्ञानावरणकर्म के उदय से मिलते हैं ?
समाधान - हमारे कर्म का बाहरी सामग्री व दूसरे प्राणी पर असर पड़ता भी है और नहीं भी, एकान्त नियम नहीं है। हमारा कर्मोदय निमित्तमात्र होता है जैसे पं० दौलतरामजी ने कहा भी है- 'मविभागन बचजोगे बसाय, तुम ध्वनि सुनि विभ्रम नसाय।' यहाँ भव्यजीवों का भाग्य ध्वनि के खिरने में निमित्त हा धौर वचनहुआ योग से निकली वचनवगंगा, भव्य जीवों का भ्रम दूर करने में कारण हुई। चक्रवर्ती के तथा गणधर की शंका के निमित्त से भी भगवान की वाणी खिर जाती है । इस प्रकार अनेक निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध हैं । मनुष्य स्वयं खोटा ( बुरा ) या अच्छा अपने कर्मोदय व विचारों से होता है, किन्तु उसकी संगति का दूसरों पर भी असर पड़ता है । कहा भी है
"जबलों नहीं शिवलहं तबलों देहू यह धन पावना | सत्संग शुद्धाचरण व ताभ्यास आत्म भावना ॥"
सर्वप्रथम सत्संगति पाने की भावना की है ।
उत्तरपुराण पृष्ठ २, सर्ग ४८, श्लोक १६-२० में लिखा है 'तीर्थंकर नामक पुण्यप्रकृति के प्रभाव से राजा जितशत्रु के घर में इन्द्र की प्राज्ञा से कुबेर ने प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ रत्नों की दृष्टि की।' जब तीयंकर गर्भ में आते हैं उस निमित्त से माता १६ स्वप्न देखती है। तीर्थंकर के जन्म के प्रभाव से देवों के दुन्दुभि बाजे बिना बजाये बजने लगते हैं, इन्द्र तथा देवों के आसन कम्पित होने लगते हैं, कल्पवासी देवों के घरों में घंटा, ज्योतिषी देवों के घरों में सिंहनाद, व्यन्तर देवों के घरों में भेरी और भवनवासी देवों के घरों में शंखों के शब्द अपने आप होने लगते हैं ( महापुराण पर्व १३ ) । तपकल्याणक के समय देवों के आसन कम्पायमान होने लगते हैं । ( महापुराण पर्व १७ )। जिसप्रकार जन्म के समय कल्पवासी आदि देवों के घरों में घंटा आदि के शब्द अपने आप होने लगते हैं उसी प्रकार केवलज्ञान के समय भी देवों के घरों में अपने आप घंटा आदि के शब्द होने लगते हैं ( महापुराण पर्व २२ ) । समवशरण में जीव जातिविरोधी बैर को तजदेते हैं । षट्ऋतु के फल फूल आजाते हैं । इस प्रकार बाह्य सामग्री और दूसरे जीवों पर तीर्थंकरप्रकृति कर्म का असर ( प्रभाव ) पड़ता है ।
प्रद्युम्नचरित्र में यह कथन है कि जो दुःखदायक सामग्री थी वह ही सामग्री प्रद्युम्न के पुण्योदय से सुखोत्पन्न करनेवाली होगई । सास ने घड़े में सांप डाला, किन्तु वह सांप पुण्योदय से फूलमाला बन गई। इस प्रकार के अनेक कथन प्रथमानुयोग में मिलेंगे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org