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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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विशुद्धपरिणामवाले को तिर्यंच-मनुष्य-देवायु के उत्कृष्टस्थितिबंध का स्वामी कहा है। इसप्रकार तीन-आयु की शुभस्थिति और शेष प्रकृतियों की स्थिति अशुभ है।
-ज. ग. 1-2-62/VI/ म. प.छ.ला.
संक्लेश व विशुद्धि दोनों ही के समय पुण्य व पापप्रकृतियों का बन्ध शंका-"शुभप्रकृति का संक्लेश-परिणामों से जघन्यअनुभागबन्ध होता है और विशुद्धपरिणामों से पापप्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध होता है" ऐसा गोम्मटसार कर्मकांड गाथा १६३ की बड़ी टीका के पृ० १९९ पर लिखा है। इसमें शंका यह है कि प्रथम तो संक्लेश-परिणामों से शुभप्रकृति का बन्ध ही नहीं होता, क्योंकि संक्लेशपरिणामों को पाप परिणाम कहते हैं और पापपरिणामों से शुभका बन्ध नहीं होता, पापपरिणामों से पाप ही का बन्ध होता है। उदाहरण सहित स्पष्ट करें।
समाधान-शुभ परिणामों से शुभप्रकृतियों का ही आस्रव व बन्ध होता है और अशुभ परिणामों से पापप्रकृतियों का ही आस्रव और बंध होता है, ऐसा एकान्त नियम नहीं है। क्योंकि ४७ ध्र वबन्धीप्रकृतियों में पुण्य और पाप दोनों प्रकार की प्रकृतियां हैं जिनका शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के परिणामों में निरन्तर प्रास्रव व बंध होता रहता है । वे ध्र वबन्धी ४७ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं
गाणंतरायदसयं बंसण णव मिच्छ सोलस कसाया । भय कम्म दुगुच्छा वि य तेजा कम्मं च वष्णचवू ॥ अगुरुअलहु-उवघाद णिमिणं णामं च होंति सगदालं। बंधो चवियप्पो धुवबंधोणं पडिबन्धो ॥ (धवल पु. ८ पृ० १७)
अर्थ-ज्ञानावरण और अंतराय की दश, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, भय, जुगुप्सा, तेजसशरीर, कार्माणशरीर, वर्णादिक-चार, अगुरुकलघु, उपघात और निर्माण नामकर्म, ये संतालीस ध्र वबन्धी प्रकृतियां हैं।
इन ४७ ध्र वबन्धी प्रकृतियों में से तैजसशरीर, कार्माणशरीर, अगुरुकलघु और निर्माण ये चार पुण्य ( शुभ ) प्रकृतियाँ हैं और शेष ४३ अशुभ ( पाप ) प्रकृतियाँ हैं। ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय ८ सूत्र २५ व २६ )।
इस प्रकार अशुभ परिणामों में उपयुक्त चार शुभप्रकृतियों का तो अवश्य ही बंध होता है। इनके अतिरिक्त औदारिक या वैक्रियिकशरीर, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, बादरपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अतियंचायु का भी यथायोग्य बन्ध सम्भव है । जिनमें जघन्य अनुभागबन्ध होता है । शुभ परिणामों में उपर्युक्त ४३ ध्र वबन्धी अशुभप्रकृतियों का बन्ध होता है, जिनमें जघन्यअनुभागबन्ध होता है।
"शुभ-परिणाम-निर्वृत्तो योगः शुभः। अशुभ-परिणाम-निवृत्तश्चाशुभः। न पुनः शुभाशुभ-कर्मकारणत्वेन । यवमुच्यते शुभयोग एव न स्यात्, शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबन्ध-हेतुत्वाभ्युपगमात् ।"
( सर्वार्थसिद्धि ६३)
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