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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
तीर्थंकर प्रकृति का स्थिति बन्ध
शंका- तिर्यञ्चायु का स्थितिबन्ध तो विशुद्धता से अधिक और संक्लेशता से कम होता है लेकिन तीर्थंकरप्रकृति का स्थितिबन्ध विशुद्धता से कम और संक्लेशता से अधिक होता है, सो क्या कारण है ?
समाधान – तिथंच - मनुष्य - देवआयु के अतिरिक्त अन्य सब कर्मप्रकृतियों का स्थितिबन्ध संक्लेशता से safe और विशुद्धता से कम होता है, किन्तु उक्त तीन प्रायु का स्थितिबन्ध संक्लेशता से कम और विशुद्धता से अधिक होता है । इसमें प्रकृतिविशेष ही कारण है । अथवा तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु की उत्कृष्ट स्थिति भोगभूमिया जीवों के होती है । दानादि के कारण विशुद्धपरिणामों से भोगभूमिया की आयु का बन्ध होता है । संक्लेशपरिणामों से भोगभूमिया का बन्ध नहीं होता । देवायु की उत्कृष्टस्थिति अनुत्तरविमानों में होती है । सम्यग्डष्टिसंयमी मनुष्य शुक्ललेश्या सहित ही अनुत्तरविमानों में उत्पन्न होता है अतः देवायु की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध विशुद्धपरिणामों से होता है । तीर्थंकर आदि अन्य पुण्यप्रकृतियों का स्थितिबन्ध विशुद्धपरिणामों से कम और संक्लेश से अधिक होता है ।
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संसार में अधिक काल तक रहने का कारण संक्लेश है । संसारविषै रहना स्थितिबन्ध के अनुसार है । तातें संक्लेश से (तीन आयु के अतिरिक्त) सर्व प्रकृतिनि का स्थितिबन्ध बहुत होय । (लब्धिसार क्षपणासार बड़ी टीका पृ० १७ )
इन्द्र भी तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ नहीं कर सकता
-- पताचार ब. प्र. स., पटना
शंका- क्या भगवान के समवसरण में इन्द्र या देव तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ कर सकते हैं ? समाधान - मात्र मनुष्य ही तीर्थंकरप्रकृति का बंध प्रारम्भ कर सकता है ।
'तित्थयरबंध पारंभया णरा केवलिबुगंते ॥९३॥ ' ( गो . क. )
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मनुष्य ही केवली या श्रुतकेवली के निकट तीर्थंकरप्रकृति के बंध का प्रारम्भ करते हैं । इस आर्षवचन से सिद्ध होता है कि इन्द्र या देव तीर्थंकरप्रकृति के बंध का आरम्भ नहीं कर सकते । जिस मनुष्य ने तीर्थंकर प्रकृति के बंध का आरम्भ कर दिया है जब वह मरकर देव या इन्द्र होता है उस देव या इन्द्र के तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता रहता है ।
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तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति बन्ध का श्रर्थ
शंका- पंचसंग्रह पृष्ठ २५३ " तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्टस्थितिबन्ध चौये गुणस्थानवाले सम्यग्दृष्टि मनुष्य के होता है ।" यहाँ प्रश्न यह है कि उत्कृष्ट स्थितिबंध का क्या अर्थ है ? क्या तेरहवें गुणस्थान में रहने के काल से मतलब है या स्थितिसत्त्व की अपेक्षा से ?
- जै. ग. 4-9-69 / VII / सु. प्र. जैन
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