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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
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के योग्य होते हैं । कर्मभूमिया-तियंच व मनुष्यों की पूर्वकोटिसे अधिक आयु नहीं होती है प्रसंख्यातवर्ष की श्रायुवाले भोगभूमिया-तियंच और मनुष्यों में देव और नारकियों के समान छहमास से अधिक आयु रहनेपर परभवसम्बन्धी आयु के बंध का अभाव है ।
संख्यातवर्ष की प्रायुवाले ( कर्मभूमिया) मनुष्य व तिथंच कदलीघात से अथवा अधः स्थिति के गलन से, जब तक भुज्य और अवभुक्त आयुस्थिति में मुक्त आयुस्थिति के अर्धप्रमाण से अथवा उससे हीन प्रमाणसे भुज्यमानआयु को नहीं कर देते हैं, तब तक परभवसम्बन्धी आयुबन्ध के योग्य नहीं होते हैं । यह नियम पारिणामिक है । इसलिए आयुकर्म की उत्कृष्ट आबाधा पूर्वकोटि के त्रिभाग से अधिक नहीं होती है ।
इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वकोटि या उससे कम आयुवाले मनुष्य, तियंचों के मुक्तश्रायु के अर्धभाग या उससे कम शेष रहने पर अर्थात् आयु का त्रिभाग या उससे कम शेष रहनेपर वे परभविक आयुबंध के योग्य होते हैं ।
- जै. ग. 17-6-66 / VIII / ज. ला. जैन, भीण्डर
शंका-नरक व स्वर्ग में पल्य व सागरों की आयुवालों के आयुबंध कालका क्या नियम है ? समाधान- नारकी व देव अपनी-अपनी आयु में छहमास शेष रहनेपर परभविक आयुबंध के योग्य होते हैं । जैसा कि श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य ने कहा है
"सुरणिरया णरतिरियं छम्मासव सिटुगेसगाउत्स ।"
पनी अपनी आयु में अधिक से अधिक छह महीने शेष रहनेपर देव और नारकी मनुष्यायु अथवा तियंचश्रायुका बंध करने के योग्य होते हैं। छहमाह से अधिक आयु शेष रहने पर देव और नारकी परभविक आयुबंध करने के अयोग्य रहते हैं ।
- जै. ग. 17-6-76/ VIII / ज. ला. जैन, भीण्डर
नरकायु के बन्ध में पूर्व कर्मोदय तथा कुपुरुषार्थ; दोनों कारण हैं
शंका- नरकायु का बन्ध मनुष्य के पुरुषार्थ के दोष से होता है या पूर्व कर्मोदय से होता है ?
समाधान - मनुष्यों में संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्त कर्मभूमिया मनुष्य ही नरकायु का बंध कर सकता है। संज्ञी - पंचेन्द्रियपर्याप्त मनुष्य सुशिक्षा आदि ग्रहण करके देव व मनुष्यआयु का बंध भी कर सकता है और कुशिक्षा ग्रहण करके नरक तिर्यंचायु का भी बंध कर सकता है ।
संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तमनुष्य के ज्ञान का क्षयोपशम तो है । यदि वह उस क्षयोपशम का सदुपयोग करे तो वह अपना उत्थान कर सकता है, यदि वह उसका दुरुपयोग करे तो अपना पतन कर लेता है ।
इस प्रकार नरकायु के बन्ध में पुरुषार्थं के दुरुपयोग की मुख्यता है तथापि दैव ( पूर्वं कर्मोदय ) भी गौणरूप से कारण है, क्योंकि दैव या पुरुषार्थ का एकान्त नहीं है ।
- जं. ग. 7-1-71 / VII / रो. ला. मित्तल
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