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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । सर्व गतियों के सम्यक्त्वी अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करते हैं शंका-कषायपाहुड पुस्तक ५ पृष्ठ ५० विशेषार्थ में 'दूसरे आदि नरकों में अनंतानुबंधी चतुष्क को क्षपणा लिखी है, सो कैसे?
समाधान-प्रथमनरक में क्षायिकसम्यग्दृष्टि या कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि उत्पन्न हो सकता है, द्वितीयादि ६ नरकों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव ही उत्पन्न होता है। नरकों में मिथ्यादृष्टि जीव भी उपशम तथा क्षयोपशम सम्यक्त्व को उत्पन्न कर सकता है। प्रत्येक गति का उपशम व क्षयोपशमसम्यम्दृष्टिजीव अनन्तानुबंधीकषाय की विसंयोजना कर सकता है। अतः प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि व क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि नारकीजीव भी अनन्तानुबंधी कषाय की विसंयोजना कर सकते हैं। ( कषायपाहुड पु० २ पृ० २२०, २३२ )।
-जे. सं. 27-11-58/V/ ब्र. राजमल ( आ. श्री शिवसागरजी संघस्थ ) सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व के सत्त्वी जीवों का स्पर्शन सर्व लोक है
शंका-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व-प्रकृतिवालों के सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन कषायपाहड पस्तक ५ पृष्ठ २२९ पर कहा है सो मिश्र में कैसे संभव है ?
समाधान--कषायपाहुड़ पुस्तक ५ पृ० २२९ पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की सत्तावालों का स्पर्शन सर्वलोक क्षेत्र कहा है । प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्राप्त होने पर मिथ्यात्व द्रव्यकर्म के तीन टुकड़े हो जाते हैं। पुनः मिथ्यात्व में जाकर एकेन्द्रिय में उत्पन्न होनेवाले जीवों के भी पल्य के असंख्यातवेंभाग काल तक सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का सत्त्व रहता है, क्योंकि इन दोनों (सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व ) प्रकृति की उलना होकर मिथ्यात्वरूप परिणमने में पल्य का असंख्यातवाँ भाग काल लगता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की सत्तावाले एकेन्द्रियों में असंख्याते जीव हैं। ऐसे एकेन्द्रियजीवों की अपेक्षा से सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की सत्तावाले जीवों का स्पर्शन सर्वलोक कहा है।
-जं. सं. 1-1-59/V/ मा. सु. रांचका, व्यावर
सम्यक्त्वी के "२६ प्रकृति से २८ प्रकृति के सत्व रूप वृद्धि" नहीं होती
शंका-उपशमसम्यग्दृष्टि के वृद्धि, हानि व अवस्थान पदों के न होने का नियम स्वीकार करनेपर तो २६ प्रकृतिरूप से २८ प्रकृतिरूप घृद्धि करनेवाले सम्यग्दृष्टि के बाधा क्यों नहीं पड़ती ?
समाधान-मोहनीयकर्म की २६ प्रकृति के सत्त्व का स्वामी सम्यग्दृष्टिजीव नहीं होता है, क्योंकि प्रथमोपशम के प्रथमसमय में ही मिथ्यात्वकर्म के तीन टुकड़े होकर मोहनीय की २८ प्रकृति का सत्त्व हो जाता है (धवला पुस्तक ६ पृ० २३४ ) मोहनीय की २६ प्रकृति के सत्त्व का स्वामी नियम से मिथ्यादृष्टिजीव ही होता है
क. पा.पु.२ पृष्ठ २२१)। अतः सम्यग्दृष्टि के २६ प्रकृति के सत्त्व से २८ प्रकृति की वृद्धि का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।
-जं. सं. 24-7-58/V/ जि. कु. जैन, पानीपत
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