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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] श्वेताम्बर साधुओं ने कहा कि हमारे ग्रन्थों में ऐसा कहाँ लिखा है कि स्त्री को मुक्ति नहीं हो सकती ? तब गुरुजी ने कहा कि आप कहें तो मैं बता दूं। तब श्वेताम्बर साधुओं के कहने पर पूज्य गुरुजी श्वे० पञ्चसंग्रह अपने पुस्तकालय से उठा लाये और उसमें से प्रकरण निकालकर उन्हें बताया कि देखो, "यह लिखा है स्त्री-मुक्ति का निषेध, आप ही पढ़िये................।" श्वेताम्बर साधु पढ़ने लगे और पढ़कर कहने लगे कि भाई ! आप इस श्वेताम्बर ग्रन्थ को कहाँ से लाये हो ? गुरुजी ने कहा, "मैं कहीं से भी लाया हूँ, पर है तो श्वेताम्बर ग्रन्थ ही ना ? आपके ग्रन्थों की बात तो मानिये।" उस प्रकरण में जब साधुओं ने पढ़ा कि स्त्री को तीन हीन संहनन ही होते हैं तथा तेरहवें गुणस्थान में उत्तम प्रथम संहनन का ही उदय सम्भव है तो वे इसे पढ़ कर चकित रह गये और कहा कि “वस्तुतः आपकी ( दिगम्बरों की ) बात सही है। स्त्री-मुक्ति मानना गलत है; मल्लिनाथ पुरुष थे, न कि स्त्री।" इसी तरह कई स्थानों पर चर्चाओं में जाकर आर्ष प्रमाणों से आपने दिगम्बर सिद्धान्तों की सत्यता प्रकट की थी। एक बार की बात है कि आपकी पत्नीश्री मन्दिरजी जा रही थीं तो रास्ते में साइकिल से टक्कर लग जाने से इनके पाँवों में भयङ्कर चोट लगी और ये नीचे गिर गयीं। उस समय एक-दो व्यक्तियों ने, जो घटनास्थल पर थे, मिलकर इन्हें उठाया तथा तत्काल घर पर सूचना भेजी। गुरुजी यह दुःसंवाद सुनकर बिलकुल सामान्य स्थिति में रहते हुए, बिना धैर्य खोए यथोचित निदान में लग गये। सामान्य गृहस्थीजन की तरह उस घटनाकाल में आने वाली बेचैनी का अंश भी नहीं। उस समय उनको विशेष पूछा तो फरमाया कि-"चिन्ता नहीं करनी चाहिये, सद्गृहस्थ चिन्ता नहीं करता है, चिन्ता करना पाप है। उसे तो समयोचित पुरुषार्थ करते जाना चाहिये तथा स्वश्रद्धान नहीं खोते हुए; पर में ममत्व व पर से आशा का त्याग करते हुए उचित कर्तव्य निरन्तर करते रहना चाहिए । बस, यही तो मार्ग है।" पूज्य गुरुवर्यश्री का तो यहाँ तक कहना है कि मोक्ष की भी चिन्ता न करो, चिन्ता से मोक्ष नहीं मिलता। मोक्ष तो श्रद्धानपूर्वक सम्यग्धी की परिप्राप्ति के साथ-साथ संयम की पूर्णता का फलभूत है; चिन्ता का कार्यभूत मोक्ष नहीं। जब हमने पूछा कि गुरुवर्य ! प्रात्मा का हित क्या है ? तो पूज्यश्री ने प्रशान्तभाव से मुस्कराते हुए प्रतिवचन दिया कि बस, आत्मा का हित आत्मा है। मैं एक दम विचारमग्न हो गया कि इसमें क्या रहस्य है ? फिर अल्पकालीन विचार के बाद स्वयं मैंने पाया कि "वस्तुतः आत्मा का हित आत्मा है।" इसका विस्तार यह है कि आत्मा अर्थात् जीव का हित अर्थात् कल्याण आत्मा अर्थात् स्व ही है। अर्थात् आत्मा का हित स्व अर्थात् स्वाश्रय ही है । पराश्रय ही आत्मा का अहित है । जब हमने पुनः पूछा कि गुरो ! आत्मा का अहित क्या है ? तो प्रत्युत्तर मिला कि पर से अपनी पूर्ति चाहना अर्थात् पर से अपना हित चाहना। तब इतना सुनते ही पूर्व का उत्तर भी सरलीकृत हो गया था । वास्तव में जो पर से स्व-हित बुद्धि का त्याग करदे वही महामानव बन जाता है । यही सफलता पाने की कुंजी है। __ जब किसी ने आपसे पूछा कि पण्डितजी ! पद्मपुराण आदि तो विशेष प्रामाणिक नहीं हैं ना? तो गुरुजी ने उत्तर दिया कि भाई ! पद्मपुराण आदि भी शतप्रतिशत प्रामाणिक हैं। इसका कारण यह कि वे भी आर्ष-ग्रन्थ हैं और देववाणी हैं, इसमें शङ्का मत करना । कुरावड़ की प्रतिष्ठा में श्रावक श्री कानजीस्वामी आये थे। प्रतिष्ठा के पश्चात् आप कुछ दिवस उदयपुर ठहरे थे। इस अवधि में मैं भी उदयपुर ही था। आप श्री जितमलजी संगावत (सरबत विलास के पास) के घर ठहरे थे। सायं ( ७ से ८ बजे तक ) शंका-समाधान चलता था तथा सुबह एवं दोपहर में एक-एक घण्टे तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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