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________________ ३६८ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । "औपशमिकादि क्षायिकः प्रकृष्टशुरुष्युपेतः । आत्मनोऽपि कर्मणोऽत्यन्त विनिवृत्तौ विशुद्धिरात्यन्तिको भय इत्युच्यते ।' ( रा. वा० २/१/१० व २) मर्थात-प्रौपशमिकभाव से क्षायिकभाव प्रकृष्टशुद्धिवाला होता है । आत्मा से कर्मों की अत्यन्त निवृत्ति के द्वारा जो आत्यन्तिकविशुद्धि होती है वह क्षय है । बारहवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीयकर्म का क्षय होने से आत्यन्तिकविशुदि हो जाती है फिर उसमें हानि-वृद्धि नहीं होती है। जैसा श्लो० वा० प्रथम अ० प्रथम सूत्र की टीका में कहा है 'क्षायिकभावानां न हानिर्नाऽपि वृद्धिरिति ।' अर्थात्-क्षायिकभावों में न हानि होती है और न वृद्धि होती है। इन आर्षवाक्यों से सिद्ध होता है कि बारहवें, तेरहवें मौर चौदहवें गुणस्थानमें क्षायिकचारित्र होने से आत्यन्तिकविशुद्धि होती है तथा हानि-वृद्धि नहीं होती, अर्थात् इन तीनों गुणस्थानों में मायिकयथाख्यातचारित्र के अविभागप्रतिच्छेद समान होते हैं । इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि बारहवें गुणस्थान का क्षायिकचारित्र अपूर्ण है। यदि बारहवें गुणस्थान में यथाख्यातक्षायिकचारित्र में कोई कमी नहीं रही और तेरहवें गुणस्थान के प्रथमसमय में क्षायिककेवलशान हो गया फिर तुरंत मोक्ष क्यों नहीं हो जाता है ? सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के क्षायिक हो जाने पर भी मनुष्यायुरूप बाधक कारण के सदभाव में मोक्ष नहीं होता है। क्षायिकभावों में यह शक्ति नहीं है कि स्थितिकाण्डकघात प्रादि के द्वारा मनुष्यायु की स्थिति का अपकर्षण कर क्षय कर देवे। अपनी स्थिति पूर्ण होने पर ही चरमशरीरी के आयुकर्म का क्षय होता है। कहा भी है "औपपाविकचरमोत्तमहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ।" ( २१५३॥ मो० शा० ) अर्थ-उपपादजन्मवाले अर्थात् देव, नारकी, चरमोत्तम देहवाले अर्थात् तद्भवमोक्षगामी, असंख्यातवर्ष की पायुवाले अर्थात् भोगभूमिया जीव अनपवर्त्य आयुवाले होते हैं अर्थात् इनकी आयु नहीं घटती। आय के क्षय से नाम, गोत्र व वेदनीयकर्मों का क्षय होता है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है"माउस्स खयेण पुणो णिच्यासो होई सेसपयडीणं ।" ( नियमसार गा. १७६ ) अर्थ-केवली के फिर आयु के क्षयसे शेष प्रकृतियों का सम्पूर्ण नाश होता है । केवली के इस मनुष्यशरीर से मुक्ति का कारण तथा इस शरीर में रुके रहने का कारण चारित्र की पूर्णता या अपूर्णता नहीं है, किन्तु मनुष्यायु का क्षय व उदय कारण है। चौथे गुणस्थान के क्षायिक सम्यग्दर्शन और तेरहवें गुणस्थान के सम्यग्दर्शन में क्षायिकभाव की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है। -णे. ग. 5-9-66/VII/ र. ला. जैन, मेरठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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