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________________ ३५४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । इस मनुष्यभव में संयम को पालनकर उपरिमप्रैवेयिक में मनुष्यप्रायु से कम इकतीससागर की मायुवाला अहमिन्द्र हुआ। वहाँ पर अन्तमुहूर्तकम छयासठसागर के चरमसमय में सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थान को प्राप्त हुआ । अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त हो, विश्राम ले, च्युत हो मनुष्य हो गया। यहां पर संयम या संयमासंयम को पालनकर, इस मनुष्यायु से कम बीससागर की प्रायुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । पुनः मनुष्य होकर, मनुष्यायु से कम बाईससागरवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ से मनुष्य होकर पुनः इस मनुष्यायु से कम चौबीससागर की आयुवाले देवों में उत्पन्न हुआ। अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठसागरोपम काल के अन्तिमसमयमें मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। -जें. ग. 5-12-66/VIII/ र. ला. जैन मिथ्यात्व के सत्त्वाभाव वाला वेदकसम्यक्त्वी मिथ्यात्वी नहीं बनता शंका-जिस क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व की सत्ता नहीं है और अभी जिसने सम्यक्रवप्रकृति और मिश्रप्रकृति का क्षय नहीं किया है तो ऐसा क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि नियम से क्षायिकसम्यग्दृष्टि होगा या मिथ्याष्टि भी हो सकता है ? समाधान-जिस क्षयोपशमसम्यग्दष्टि ने मिथ्यात्वप्रकृति का क्षय कर दिया है वह नियम से एक अन्तमुहर्त में मिश्र व सम्यक्त्वप्रकृति का भी क्षय करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि होगा, मिथ्याइष्टि नहीं हो सकता। मिथ्यात्वप्रकृति का क्षय हो जाने पर पुनः उसकी सत्ता, बन्ध या उदय नहीं हो सकता। मिथ्यात्वप्रकृति के उदय के बिना जीव मिथ्यादष्टि नहीं हो सकता, अर्थात् मिथ्यात्वगुणस्थान को प्राप्त नहीं हो सकता। -ज. ग. 10-1-66/VIII/ र. ला. जैन कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता शंका-क्या कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिजीव भी मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है ? समाधान-मिथ्यात्वप्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति इन दोनों के सत्त्वक्षय के हो जाने पर कतकरोड सम्यग्दृष्टि' होता है। सम्यग्दृष्टिजीव के मिथ्यात्व का बंध नहीं होता, क्योंकि मिथ्यात्वप्रकृति की बंधव्यच्छित्ति प्रथमगणस्थान में हो जाती है। कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि के न तो मिथ्यात्वप्रकृति का सत्त्व है और न बंधपता कतकत्यवेदकसम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व का उदय असंभव है। मिथ्यात्वप्रकृति के उदय के बिना कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व को कैसे प्राप्त हो सकता है ? यदि कर्मोदय बिना भी जीव के विकारीभाव होने लगे तो सिद्धों के भी विकारीभावों के होने का प्रसंग पाजावेगा। मिथ्यात्वप्रकृति का सर्वथा अभाव हो जाने से कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मियात्व को प्राप्त नहीं हो सकता। विशेष के लिये षट्खंडागम पुस्तक ६ पृष्ठ २५८ से २६३ तक देखना चाहिए और बंध व्यूच्छित्ति के लिये षट्खंडागम पु० ७ पृष्ठ १० देखना चाहिए। -जं. सं. 24-7-58/V/ जि. कु. जैन, पानीपत कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वी क्षायिकसम्यक्त्वो बनता ही है शंका-कृतकृत्यवेवक सम्यग्दृष्टि क्या नियम से क्षायिकसम्यग्दृष्टि बनता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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