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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
जीवादी सहहणं सम्मत्त जिणवरेहिं पण्णत्तं। ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्त ॥२०॥ वर्शनपाहट
अर्थ-जीवादि कहे जे पदार्थ तिनका श्रद्धान सो तो व्यवहारतें सम्यक्त्व जिन भगवान ने कहा है बहुरि निश्चयतें अपना प्रात्मा ही का श्रद्धान सो सम्यक्त्व है।
अथ व्यवहार सम्यग्दर्शनं कथ्यते -
एवं जिणपण्णत सतहमाणस्स भावदो भावे ।
पुरिसस्साभिणिबोघे दसणसददो हवि जुत्ते ॥ पं. का. गा. १०७ । अर्थ-इसप्रकार वीतरागसर्वज्ञ द्वारा कहे हुए पदार्थों को रुचिपूर्वक श्रद्धान करनेवाले भव्यजीव के ज्ञान में सम्यग्दर्शन उचित होता है । ( यह व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा गया है )
नियमसार में व्यवहारसम्यग्दर्शन को इसप्रकार कहा है-'अत्तागमतच्चारणं, सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं ।' अर्थात्-प्राप्तागम व तत्त्वों का श्रदान सम्यग्दर्शन होता है। वृहदव्यसंग्रह गाथा ४१ में भी व्यवहारसम्यग्दर्शन का लक्षण इसप्रकार कहा है
जीवादीसदहणं सम्मत रूपमप्पणो तं तु । दुरभिणिवेसविमुक्कं गाणं सम्म ख होदि सदि जहि ॥४१॥
अर्य-जीवादि पदार्थों का जो श्रद्धाम वह तो सम्यक्त्व है और वह सम्यक्त्व आत्मा का स्वरूप है। तथा इस सम्यक्त्व के होने पर संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय इन तीनों दूरभिनिवेशों से रहित सम्यग्ज्ञान होता है।
इस गाथा की टीका में लिखा है 'तीनमूढता, माठमद, छहअनायतन और शंकादिरूप पाठदोषों से रहित तथा शद्ध जीवादि तत्त्वों के श्रद्धानरूप सरागसम्यक्त्व नामक व्यवहारसम्यक्त्व जानना चाहिए। और इसीप्रकार उसी व्यवहारसम्यक्त्व द्वारा परम्परा से साधने योग्य शुद्धोपयोगरूप निश्चयरत्नत्रय की भावना से उत्पन्न परम आलादरूप सुखामृतरस का आस्वादन ही उपादेय है, इंद्रियजन्यसुख आदिक हेय हैं ऐसी रूचिरूप तथा वीतरागचारित्र के बिना न होनेवाला वीतरागसम्यक्त्व नामक निश्चयसम्यक्त्व जानना चाहिये।'
इसीप्रकार समयसार की टीका में श्रीमद्जयसेनाचार्य ने निश्चयचारित्र का अविनाभावी वीतरागसम्यक्त्व निश्चयसम्यक्त्व है ऐसा कहा है। गाथा १३ की उस्थानिका ।
व्यवहारसम्यक्त्व में भी मिथ्यात्वकर्म का उदय नहीं होता और यह व्यवहारसम्यक्त्व निश्चयसम्यक्त्व का बीज है। पं. का. गाथा १०७ की टीका में श्री अमृतचन्द्रस्वामी ने कहा भी है-"भावाः खल कालकलित.
सास्तिकायविकल्परूपा नवपदार्थास्तेषां मिथ्यादर्शनोदवापादितावद्धानाभावस्वभावं, भावांतरं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं. शक्षचंतन्यरूपात्मतत्त्वविनिश्चयबीजं।"
इन उपयुक्त आगमप्रमाणों के अनुसार २५ दोष व्यवहार व निश्चय दोनों सम्यग्दर्शन में नहीं लगते हैं। इस ही को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इसप्रकार कहा है
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